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________________ सप्तस्थानक समवाय ] [ 19 बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह वीतराग मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का वेदन करते हैं। ४१-महानक्खत्ते सत्ततारे पण्णत्ते। कत्तिआइआ सत्तनक्खता पूव्वदारिआ पणत्ता / [पाठा० अभियाइया सत्त नक्खत्ता] महाइया सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिआ पण्णत्ता / अणुराहाइआ सत नक्खत्ता अवरदारिआ पण्णत्ता / धणिट्ठाइया सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिमा पपणत्ता। मघानक्षत्र सात तारावाला कहा गया है। कृत्तिका आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा की ओर द्वारवाले कहे गये हैं। पाठान्तर के अनुसार-अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं / मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं। अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं। धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं। 42- इमीसे णं रयणप्पभाए युढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्त पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। चउत्थोए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णणं सत्त सागरोवमाई ठिई पग्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्त पलिप्रो. वमाई ठिई पण्णता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / सणंकुमारे कप्पे प्रत्येगइयाणं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / माहिदे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साइरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है / तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवी में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई है। चौथी पंकप्रभा पृथिवी में नारकियों की जघन्य स्थिति मात मागरोपम कही गई है। कितनेक असुर कुमार देवों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है। सनत्कुमार कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई है। माहेन्द्र कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम कही गई है। 43 -बंभलोए कप्पे अत्यंगइयाणं देवाणं सत्त साहिया सागरोवमाइं ठिई पण्णता / जे देवा समं समप्पभं महापभं पभासं भासुरं विमलं कंचणकूडं सणंकुमारडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पणत्ता। ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा, पागमति वा, ऊससंति वा, नोससंति वा, तेसि गं देवाणं सहि वाससहस्सेहि आहारट्ठ समुप्पज्जा। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे णं सत्तहिंभवगहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / ब्रह्मलोक में कितनेक देवों को स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम कही गई है / उनमें जो देव सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारावतसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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