________________ 22] [समवायाङ्गसूत्र ___ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / ब्रह्मलोक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति आठ सागरोपम कही गई है। वहां जो देव प्रचि 1, अचिमाली 2, वैरोचन 3, प्रभंकर 4, चन्द्राभ 5, सूराभ६, मुप्रतिष्ठाभ 7, अग्नि-प्राभ 8, रिष्टाभ 9, अरुणाभ 10, और अनुत्तरावतंसक 11, नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपम कही गई है। वे देव पाठ अर्धमासों (पखवाड़ों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों के पाठ हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव आठ भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और र का अन्त करेंगे। // अष्टस्थानक समवाय समाप्त / / नवस्थानक-समवाय 51 ---नव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- नो इत्थि-पसु-पंडगसंसत्ताणि सिज्जासणाणि सेवित्ता भवइ 1, नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ 2, नो इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवइ 3, नो इत्थीणं इंदियाणि मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ 4, नो पणीयरसभोई भवइ 5, नो पाणभोयणस्स अइमायाए प्राहारइत्ता भवइ 6, नो इत्थीणं पुश्वरयाई पुवकोलिआई समरइत्ता भवइ 7, नो सदाणुवाई, नो रूवाणुवाई, नो गंधाणुवाई, नो रसाणुवाई, नो फासाणुवाई, नो सिलोगाणुवाई भवइ 8, नो सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवइ 9 / / ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियां (संरक्षिकाएं) कही गई हैं। जैसे--स्त्री, पशु और नपुसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन नहीं करना 1, स्त्रियों की कथानों को नहीं कहना 2. स्त्रीगणों का उपासक नहीं होना 3, स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों और रमणीय अंगों का द्रष्टा और ध्याता नहीं होना 4, प्रणीत-रस-बहुल भोजन का नहीं करना 5, अधिक मात्रा में खान-पान या ग्राहार नहीं करना 6, स्त्रियों के साथ की गई पूर्व रति और पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करना 7, कामोद्दीपक शब्दों को नहीं सुनना, कामोद्दीपक रूपों को नहीं देखना, कामोद्दीपक गन्धों को नहीं सूघना, कामोद्दीपक रसो का स्वाद नहीं लेना, कामोद्दीपक कोमल मदुशय्यादि का स्पश नहीं सातावेदनीय के उदय से प्राप्त सुख में प्रतिबद्ध (पासक्त) नहीं होना 9 / / विवेचन--ब्रह्मचारी पुरुषों को अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उक्त नौ प्रकार के कार्यों का सेवन नहीं करना चाहिए, तभी उनके ब्रह्मचर्य को रक्षा हो सकती है / आगम में ये शील की नौ वाड़ों के नाम से भी प्रसिद्ध हैं / जिस प्रकार खेत की वाड़ उसकी रक्षक होती है, उसी प्रकार उक्त नौ वाड़ें ब्रह्मचर्य की रक्षक हैं, अतएव इन्हें ब्रह्मचर्य-गुप्तियां कहा गया है। ५२-नव बंभचेर-अगुत्तीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताणं सिज्जासणाणं सेवित्ता भवइ 1, इत्थीणं कहं कहिता भवइ 2, इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवइ 3, इत्थीणं इंदियाणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org