________________ 230] [ समवायाङ्गसूत्र विवेचन- शेष तीर्थंकरों के दूसरे दिन भिक्षा-प्राप्त करने के उल्लेख का यह अर्थ है कि जो जितने भक्त के नियम के साथ दीक्षित हुए, उसके दूसरे दिन उन्हें भिक्षा प्राप्त हुई / ६४५---उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो प्रासि लोगणाहस्स / सेसाणं परमण्णं अमियरसरसोवमं आसि // 32 // सम्वेसि पि जिणाणं जहियं लद्धाउ पढमभिक्खाउ। तहियं वसुधाराम्रो सरोरमेत्तीओ वुढायो // 33 // लोकनाथ ऋषभदेव को प्रथम भिक्षा में इक्षुरस प्राप्त हुआ। शेष सभी तीर्थंकरों को प्रथम भिक्षा में अमृत-रस के समान परम-अन्न (खीर) प्राप्त हुप्रा / / 32 / / सभी तीर्थकर जिनों ने जहाँ जहाँ प्रथम भिक्षा प्राप्त की, वहाँ वहाँ शरीरप्रमाण ऊंचो वसुधारा को वर्षा हुई / / 33 / / ६४६-एएसि चउव्वीसाए तिस्थगराणं चउवीसं चेइयरुक्खा होत्था / तं जहा जग्गोह सत्तिवण्ण साले पियए पियंगु छत्ताहे। सिरिसे य जागरुक्खे साली य पिलंखुरुक्खे य // 34 // तिदुग पाडल जंबू आसत्थे खलु तहेव दहिवण्णे / गंदीरक्खे तिलए अंबयरक्खे य असोगे य॥३५॥ चंपय वउले य तहा वेडसरुक्खे य धायईरुक्खे / साले य वड्डमाणस्स चेइयरुक्खा जिणवराणं // 36 / / इन चौवीस तीर्थंकरों के चौवीस चैत्यवृक्ष थे / जैसे 1. न्यग्रोध (वट), 2. सप्तपर्ण, 3. शाल, 4. प्रियाल, 5. प्रियंगु, 6. छत्राह, 7. शिरीष, 8. नागवृक्ष, 9. साली, 10. पिलखुवृक्ष, 11. तिन्दुक. 12. पाटल, 13. जम्बु, 14. अश्वत्थ (पीपल) 15, दधिपर्ण, 16. नन्दीवृक्ष, 17. तिलक, 18. आम्रवृक्ष, 19. अशोक, 20. चम्पक, 21. बकुल, 22. वेत्रसवृक्ष, 23. धातकीवृक्ष और 24. वर्धमान का शालवृक्ष / ये चौवीस तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष हैं / / 34-36 / / ६४७-बत्तीसं धणुयाई चेइयरुक्खो य वद्धमाणस्स / णिच्चोउगो प्रसोगे श्रोच्छपणो सालरुक्खेणं // 37 // तिण्णेव गाउपाइंचेइयरक्खो जिणस्स उसभस्स। सेणाणं पुण रुक्खा सरीरओ वारसगुणा उ // 38 // सच्छता सपडागा सवेइया तोरणेहि उववेया / सुर-असुर-गरुलमहिआ चेइयरुक्खा जिणवराणं // 39 // वर्धमान भगवान् का चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुष ऊंचा था, वह नित्य-ऋतुक था अर्थात् प्रत्येक ऋतु में उसमें पत्र-पुष्प आदि समृद्धि विद्यमान रहती थी। अशोकवृक्ष सालवृक्ष से आच्छन्न (ढंका हुआ) था, / / 37 / / ऋषभ जिन का चैत्यवृक्ष तीन गव्यूति (कोश) ऊंचा था। शेष तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष उनके शरीर को ऊंचाई से बारह गुणे ऊंचे थे।। 38 // जिनवरों के ये सभी चैत्यवृक्ष छत्र-युक्त, ध्वजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org