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________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष ] [ 231 पताका-सहित, वेदिका-सहित, तोरणों से सुशोभित तथा सुरों, असुरों और गरुडदेवों से पूजित थे / / 39 / / विवेचन--जिस वृक्ष के नीचे तीर्थंकरों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसे चैत्यवृक्ष कहते हैं। कुछ के मतानुसार तीर्थकर जिस वृक्ष के नीचे जिन-दीक्षा ग्रहण करते हैं, उसे चैत्यवृक्ष कहा जाता है। कुबेर समवसरण में तीर्थंकर के बैठने के स्थान पर उसी वृक्ष की स्थापना करता है और उसे ध्वजा-पताका, वेदिका और तोरण द्वारों से सुसज्जित करता है। समवसरण-स्थित इन वट, शाल आदि सभी वृक्षों को 'अशोकवृक्ष' कहा जाता है, क्योंकि इनकी छाया में पहुंचते ही शोक-सन्तप्त प्राणी का भी शोक दूर होता है और वह अशोक (शोक-रहित) हो जाता है / ६४८-एएसि चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पढमसीसा होत्था / जहा पढमेत्थ उसभसेणे बीइए पुण होई सीहसेणे य / चारू य वज्जणाभे चमरे तह सुब्धय विदब्भे // 40 // दिण्णे य वराहे पुण आणंदे गोथुभे सुहम्मे य / मंदर जसे अरिठे चक्काह सयंभु कुभे य // 41 // इंदे कुभे य सुभे वरदत्ते दिण्ण इंदभूई य / उदितोदित कुलवंसा विसुद्धवंसा गुहिं उववेया // 42 // तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सा जिणवराणं / इन चौबीस तीर्थंकरों के चौवीस प्रथम शिष्य थे। जैसे 1. ऋषभदेव के प्रथम शिष्य ऋषभसेन, और दूसरे अजित जिनके प्रथम शिष्य सिंहसेन थे। पुनः क्रम से 3. चारु, 4. वज्रनाभ, 5. चमर, 6. सुव्रत, 7. विदर्भ, 8. दत्त, 9. वराह, 10. आनन्द, 11. गोस्तुभ, 12. सुधर्म, 13. मन्दर, 14. यश, 15. अरिष्ट, 16. चक्ररथ, 17. स्वयम्भू, 18. कुम्भ, 19. इन्द्र, 20. कुम्भ, 21. शुभ, 22. वरदत्त, 23. दत्त और 24. इन्द्रभूति प्रथम शिष्य हुए। ये सभी त्तम उच्चकल वाले, विशद्धवंश वाले और गणों से संयुक्त थे और तीर्थ-प्रवर्तक जिनवरों के प्रथम शिष्य थे / / 40-423 / / ६४९--एएसि णं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पढमसिस्सणी होत्था / तं जहा बंभी य फग्गु सामा अजिया कासवी रई सोमा / सुमणा वारुणि सुलसा धारणि धरणी य धरणिधरा // 43 // पउमा सिवा सुई तह अंजुया भावियप्पा य। रक्खी य बंधुवती पुष्फवती अज्जा अमिला य अहिया // 44 // जस्सिणी पुष्फचूला य चंदणज्जा प्राहिया उ। उदितोदियकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया / / 4 / / तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं / इन चौवीस तीर्थंकरों की चौवीस प्रथम शिष्याएं थीं। जैसे१. ब्राह्मी, 2. फल्गु, 3. श्यामा, 4. अजिता, 5. काश्यपी, 6. रति, 7. सोमा, 8. सुमना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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