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________________ षड्विंशतिस्थानक समवाय] [75 इस रत्नप्रभापृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति पच्चीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं महातमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पच्चीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति पच्चोस पल्योपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्प में कितने क देवों को स्थिति पच्चीस पल्योपम कही गई है। १७३–मज्झिमहेटिमगेवेज्जाणं देवाणं जहणणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / जे देवा हेट्ठिमउवरिमगेवेज्जगविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा पणवीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा / तेसि णं देवाणं पणवीसं वाससहस्सेहिं आहारठे समुपज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पणवीसाए भवग्गहहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / मध्यम-अधस्तनप्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति पच्चीस सागरोपम कही गई है। जो देव अधस्तन-उपरिमवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पच्चोस सागरोपम कही गई है / वे देव पच्चीस अर्धमासों (साढ़े बारह मासों) के बाद प्रान-प्राण या श्वासोच्छवास लेते हैं। उन देवों के पच्चीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो पच्चीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // पंचविशतिस्थानक समवाय समाप्त // षड्विंशतिस्थानक-समवाय १७४-छव्वीस दसकप्पक्वहाराणं उद्देसणकाला पण्णत्ता, तं जहा-दस दसाणं छ, कप्पस्स, दस ववहारस्स। दशासूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध) कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र के छब्बीस उद्देशनकाल कहे गये हैं। जैसे—दशासूत्र के दश, कल्पसूत्र के छह और व्यवहारसूत्र के दश। विवेचन–पागम या शास्त्र की वाचना देने के काल को उद्देशन-काल कहते हैं। जिस श्रुतस्कन्ध अथवा अध्ययन में जितने अध्ययन या उद्देशक होते हैं, उनके उद्देशनकाल या अवसर भी उतने ही होते हैं। १७५-अभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिज्जस्त कम्मस्स छन्वीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तं जहा--मिच्छत्तमोहणिज्जं, सोलस कसाया, इत्थीवेदे पुरिसवेदे नपुंसकवेदे हासं परति रति भयं सोगं दुगुछा। अभव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय, कर्म के छब्बीस कर्मांश (प्रकृतियाँ) सत्ता में कहे गये हैं। जैसे-१. मिथ्यात्व मोहनीय, 17. सोलह कषाय, 18. स्त्रीवेद, 19. पुरुषवेद, 20. नपुसकवेद, 21. हास्य, 22. अरति, 23. रति, 24. भय, 25. शोक और 26. जुगुप्सा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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