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________________ 74] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन--प्रत्यन्त संक्लेश परिणामों से युक्त अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय जीव नामकर्म की उक्त 25 प्रकृतियों को बाँधता है / यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि विकलेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के भेद से तीन प्रकार के होते हैं / अत: जब कोई जीव द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक के योग्य उक्त प्रकृतियों का बन्ध करेगा, तब वह विकलेन्द्रियजातिनाम के स्थान पर द्वीन्द्रियजाति नामकर्म का बन्ध करेगा। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय जाति के योग्य प्रकृतियों को बांधने वाला त्रीन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म का बन्ध करेगा / इसका कारण यह है कि जातिनाम कर्म के 5 भेदों में विकलेन्द्रिय जाति नाम का कोई भेद नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में पच्चीस-पच्चीस संख्या के अनुरोध से और द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रियों के तीन वार उक्त प्रकृतियों के कथन के विस्तार के भय से 'विकलेन्द्रिय' पद का प्रयोग किया गया है। 170 --गंगा-सिंधूनो णं महानदीनो पणवीसं गाउयाणि पुहुत्तेणं दुहनो घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडति / रत्ता-रत्तावईनो णं महाणदोनो पणवीसं गाउयाणि पुहत्तेणं मकरमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति / गंगा-सिन्धु महानदियाँ पच्चीस कोश पृथुल (मोटी) घड़े के मुख-समान मुख में प्रवेश कर और मकर (मगर) के मुख को जिह्वा के समान पनाले से निकल कर मुक्तावली हार के प्राकार से प्रपातद्रह में गिरती हैं। इसी प्रकार रक्ता-रक्तवती महान दियाँ भी पच्चीस कोश पृथुल घड़े के मुखसमान मुख में प्रवेश कर और मकर के मुख की जिह्वा के समान पनाले से निकलकर मुक्तावली-हार के आकार से प्रपातद्रह में गिरती हैं। विवेचन--क्षुल्लक हिमवंत कुलाचल या वर्षधरपर्वत के ऊपर स्थित पद्मद्रह के पूर्वी तोरण द्वार से गंगा महानदी और पश्चिमी तोरणद्वार से सिन्धुमहानदी निकलती है / इसी प्रकार शिखरी कुलाचल के ऊपर स्थित पुंडरीकद्रह के पूर्वी तोरणद्वार से रक्तामहानदी और पश्चिमी तोरणद्वार से रक्तवती महानदी निकलतो है। ये चारों ही महानदियाँ द्रहों से निकल कर पहले पांच-पांच सौ योजन पर्वत के ऊपर ही बहती हैं। तत्पश्चात् गंगा-सिन्धु भरतक्षेत्र की ओर दक्षिणाभिमुख होकर और रक्ता-रक्तवती ऐरवतक्षेत्र की अोर उत्तराभिमुख होकर भूमि पर अवस्थित अपने-अपने नाम वाले गंगाकूट आदि प्रपात कूटों में गिरती हैं / पर्वत से गिरने के स्थान पर उनके निकलने के लिए एक बड़ा वज्रमयी पनाला बना हुआ है उसका मुख पर्वत की अोर घड़े के मुख समान गोल है और भरतादि क्षेत्रों की अोर मकर के मुख की लम्बी जीभ के समान है / तथा पर्वत से नीचे भूमि पर गिरतो हुई जलधारा मोतियों के सहस्रों लड़ीवाले हार के समान प्रतीत होती है। यह जलधारा पच्चीस कोश या सवा छह योजन चौड़ी होती है / १७१-लोबिंदुसारस्स णं पुवस्स पणवीसं वत्थू पण्णता। लोकविन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व के वस्तुनामक पच्चीस अर्थाधिकार कहे गये हैं। १७२–इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पणवीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं पणवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं पणवीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं पणवीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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