SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तविंशतिस्थानक समवाय] [77 11, माणविवेगे. 12, मायाविवेगे 13, लोभविवेगे 14, भावसच्चे 15, करणसच्चे 16, जोगसच्चे 17, खमा 18, विरागया 19, मणसमाहरणया 20, वयसमाहरणया 21, कायसमाहरणया 22, णाणसंपण्णया 23, दंसणसंपण्णया 24, चरित्तसंपण्णया 25, वेयण अहियासणया 26, भारतिय अहियासणया 27 / अनगार-निर्ग्रन्थ साधुओं के सत्ताईस गुण हैं। जैसे-१ प्राणातिपात-विरमण, 2 मृषावादविरमण, 3 अदत्तादान-विरमण, 4 मैथुन-विरमण, 5 परिग्रह-विरमण, 6 श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह, 7 चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह, 8 घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, 9 जिह्वन्द्रिय-निग्रह, 10 स्पर्शनेन्द्रिय-निग्रह, 11 क्रोधविवेक, 12 मानविवेक, 13 मायाविवेक, 14 लोभविवेक, 15 भावसत्य, 16 करणसत्य, 17 योगसत्य, 15 क्षमा, 19 विरागता, 20 मनःसमाहरणता, 21 वचनसमाहरणता, 22 कायसमाहरणता, 23 ज्ञानसम्पन्नता, 24 दर्शनसम्पन्नता, 25 चारित्रसम्पन्नता, 26 वेदनातिसहनता और मारणान्तिकातिसहनता। विवेचन-अनगार श्रमणों के प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच महाव्रत मूलगुण हैं / शेष बाईस उत्तर गुण हैं / जिनमें पाँचों इन्द्रियों के विषयों का निग्रह करना, अर्थात् उनकी उच्छृखल प्रवृत्ति को रोकना और क्रोधादि चारों कषायों का विवेक अर्थात् परित्याग करना आवश्यक है। अन्तरात्मा की शुद्धि को भावसत्य कहते हैं। वस्त्रादि का यथाविधि प्रतिलेखन करते पूर्ण सावधानी रखना करणसत्य है / मन वचन काय की प्रवृत्ति समीचीन रखना अर्थात् तीनों योगों की शुद्धि या पवित्रता रखना योगसत्य है। मन में भी क्रोध भाव न लाना, द्वेष और अभिमान का भाव जागत न होने देना क्षमा गुण है / किसी भी वस्तु में प्रासक्ति नहीं रखना विरागता गुण है / मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध करना उनकी समाहरणता कहलाती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्नता तो साधुनों के होना ही चाहिए / शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को सहना वेदनातिसहनता है। मरण के समय सर्व प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को सहना, तथा किसी व्यक्ति के द्वारा होने वाले मारणान्तिक कष्ट को सहते हुए भी उस पर कल्याणकारी मित्र की बुद्धि रखना मारणान्तिकातिसहनता है। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-परम्परा में साधुओं के 28 गुण कहे गये हैं। उनमें पाँच महाव्रत और पाँचों इन्द्रियों का निरोध रूप 10 गुण तो उपर्युक्त ही हैं। शेष 18 गुण इस प्रकार हैं-पाँच समितियों का परिपालन, तीन गुप्तियों का पालन, सामायिक वन्दनादि छह अावश्यक करना, अचेल रहना, एक बार भोजन करना, केश लुच करना, और स्नान-दन्त-धावनादि का त्याग करना। __ दोनों में एक अचेल या नग्न रहने का ही मौलिक अन्तर है / शेष गुणों का परस्पर एक-दूसरे गुणों में अन्तर्भाव हो जाता है। 179 -जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहिं सत्तावीसाए णक्खतेहिं संववहारे वट्टति / एगमेगे गं णक्खत्तमासे सत्तावीसाहिं राइंदियाहिं राइंदियग्गेणं पण्णत्ते / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। जम्बूद्वीपनामक इस द्वीप में अभिजित् नक्षत्र को छोड़कर शेष नक्षत्रों के द्वारा मास आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy