________________ 78] [समवायाङ्गसूत्र का व्यवहार प्रवर्तता है। (अभिजित् नक्षत्र का उत्तराषाढा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में प्रवेश हो जाता है / ) नक्षत्र मास सत्ताईस दिन-रात की प्रधानता वाला कहा गया है / अर्थात् नक्षत्र मास में 27 दिन होते हैं / सौधर्म-ईशान कल्पों में उनके विमानों की पृथिवी सत्ताईस सौ (2700) योजन मोटी कही गई है। 180 --वेयगसम्मतबंधोवरयस्स णं मोहणिज्जस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडोओ संतकम्मंसा पण्णत्ता। सावणसुद्धसत्तमोसु णं सूरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं णिवत्तइत्ता णं दिवसखेतं नियट्टमाणे रयणिखेत्तं अभिणिवट्टमाणे चारं चरइ। वेदक सम्यक्त्व के बन्ध रहित जीव के मोहनीय कर्म की सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता कही गई है / श्रावण सुदो सप्तमी के दिन सूर्य सत्ताईस अंगुल की पौरुषी छाया करके दिवस क्षेत्र (सूर्य से प्रकाशित आकाश) की ओर लौटता हुआ और रजनी क्षेत्र (प्रकाश को हानि करता और अन्धकार को) बढ़ता हुमा संचार करता है। १८१--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तावीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तावीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है / अधस्तन सप्तम महातमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है / कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है।। १८२-मज्झिम-उधरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। जे देवा मज्झिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उपवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावोस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा। तेसि गं देवाणं सत्तावीसं वाससहस्सेहि आहार? समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / मध्यम-उपरिम अवेयक देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। जो देव मध्यम प्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। ये देव सत्ताईस अर्धमासों (साढ़े तेरह मासों) के बाद प्रान-प्राण अर्थात् उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं / उन देवों को सत्ताईस हजार वर्षों के बाद अाहार की इच्छा उत्पन्न होती है / कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्ताईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / सप्तविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org