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________________ अष्टाविंशतिस्थानक-समवाय १८३-अट्ठावीसविहे आयारपकप्पे पणते, तं जहा-मासिया प्रारोवणा 1, सपंचराई मासिआ आरोवणा 2, सदसराईमासिया प्रारोवणा 3 / [सपण्णरसराइ मासिआ आरोवणा 4, सबीसइ राई मासिआ आरोवणा 5, सपंचवीसराइ मासिमा पारोवणा 6,] एवं चेव दो मासिया प्रारोवणा सपंचराई दो मासिया आरोवणा०६ / एवं तिमासिया आरोवणा 6, चउमासिया प्रारोवणा 6, उवधाइया आरोवणा 25, अणुवघाइया प्रारोवणा 26, कसिणा प्रारोवणा 27, अकसिणा आरोवणा 28, / एतावता आयारपकप्पे एताव ताव पायरियन्वे / आचारप्रकल्प अट्ठाईस प्रकार का कहा गया है। जैसे--१ मासिकी अारोपणा, 2 सपंचरात्रिमासिकी आरोपणा, 3 सदशरात्रिमासिकी ग्रारोपणा, 4 सपंचदशरात्रिमासिकी प्रारोपणा, सर्विशतिरात्रिकीमासिको पारोपण, 5 सपंचविंशतिरात्रिमासिकी प्रारोपणा 6 इसी प्रकार द्विमासिकी अारोपणा, 6 त्रिमासिकी आरोपणा, 6 चतुमासिकी प्रारोपणा, 6 उपघातिका अारोपणा, 25 अनुपघातिका प्रारोपणा, 26 कृत्स्ना प्रारोपणा, २७अकृत्स्ना प्रारोपणा, 28 यह अट्राईस प्रकार का आचारप्रकल्प है। यह तब तक आचरणीय है / (जब तक कि प्राचरित दोष की शुद्धि न हो जावे।) विवेचन-'प्राचार' नाम का प्रथम अंग है। उसके अध्ययन-विशेष को प्रकल्प कहते हैं / उसका दूसरा नाम 'निशीथ' भी है / उसमें अज्ञान, प्रमाद या आवेश आदि से साधु-साध्वी द्वारा किये गये अपराधों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इसको प्राचारप्रकल्प कहने का कारण यह है कि प्रायश्चित्त देकर साधु-साध्वी को उसके ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप प्राचार में पुनः स्थापित किया जाता है / इस प्राचारप्रकल्प या प्रायश्चित्त के प्रकृत सूत्र में अट्ठाईस भेद कहे गये हैं, उनका विवरण इस प्रकार है किसी अनाचार का सेवन करने पर साधु को उसकी शुद्धि के लिए कुछ दिनों तक तप करने का प्रायश्चित्त दिया गया / उस प्रायश्चित्त की अवधि पूर्ण होने के पहले ही उसने पूर्व से भी बड़ा कोई अपराध कर डाला, जिसकी शुद्धि एक मास के तप से होना सम्भव हो, तब उसे उसी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में एक मास के वहन-योग्य जो मास भर का प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसे मासिकी पारोपणा कहते हैं / 1 / / कोई ऐसा अपराध करे जिसकी शुद्धि पाँच दिन-रात्रि के तप के साथ एक मास के तप से हो, तो ऐसे दोषी को उसी पूर्वदत्त प्रायश्चित्त में पांच दिन-रात सहित एक मास के प्रायश्चित्त को पूर्वदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित करने को 'सपंचरात्रिमासिको पारोपणा' कहते हैं / / 1 / / ___ इसी प्रकार पूर्व से भी कुछ बड़ा अपराध होने पर दश दिन-रात्रि सहित एक मास के तप द्वारा शुद्धि योग्य प्रायश्चित्त देने को सदशरात्रिमासिकी प्रारोपणा कहते हैं / / 3 / इसी प्रकार मास सहित पन्द्रह, बीस और पच्चीस दिन रात्रि के वहन योग्य प्रायश्चित्त मासिक प्रायश्चित्त में प्रारोपण करने पर क्रमश: पंचदशरात्रमासिकी प्रारोपणा 4, विशतिरात्र मासिकी अारोपणा 5 और पंचविंशतिरात्रमासिकी 6, प्रारोपणा होती है। जैसे मासिकी प्रारोपणा के छह भेद ऊपर बतलाये गये हैं, उसी प्रकार द्विमासिकी प्रारोपणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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