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________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक] [189 सुख-विपाक क्या है इसमें क्या वर्णन है ? सुख-विपाक में सुकृतों के सुखरूप फलों को भोगनेवालों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-परिग्रह, तप-उपधान, दीक्षा पर्याय, प्रतिमाएं, संलेखनाएं, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक-गमन, सुकुल-प्रत्यागमन, पुन: बोधिलाभ और उनकी अन्तक्रियाएं कही ५५३-दुहविवागेसु णं पाणाइवाय-अलियवयण-चोरिक्करण-परदारमेहुण-ससंगयाए महतिव्वकसाय-इंदियप्पमाय-पावप्पओय-असुहन्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पाव अणुभागफलविवागा णिरयगति-तिरिक्खजोणि-बहुविहवसण-सय-परंपरापबद्धाणं मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावमा होति फलविवागा वह-वसण-विणास-नासा-कन्नुटगुट-कर-चरण-नहच्छयण जिम्भ-च्छेअण अंजणकडग्गिदाह-गयचलण-मलण-फालण-उल्लंवण-सूललया-लउड-लट्ठि-भंजण-तउसीसगतत्ततेल्ल-कलकल-अहिसिचण-कुभिपाग-कंपण-थिरबंधण-वेह-वज्झ-कत्तण-पतिभय-कर-करपलीवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अणोवमाणि बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए। अवेयइत्ता हु णत्थि मोक्खो तवेण धिइधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वावि हुज्जा / दु:ख-विपाक के प्राणातिपात, असत्य वचन, स्तेय, पर-दार-मैथुन, ससंगता (परिग्रह-संचय) हातीव्र कषाय, इन्द्रिय-विषय-सेवन, प्रमाद, पाप-प्रयोग और अशुभ अध्यवसानों (परिणामों) से संचित पापकर्मों के उन पापरूप अनुभाग-फल-विपाकों का वर्णन किया गया है जिन्हें नरकगति, और तिर्यग-योनि में बहुत प्रकार के सैकड़ों संकटों की परम्परा में पड़कर भोगना पड़ता है। वहाँ से निकल कर मनुष्य भव में आने पर भी जीवों को पाप-कर्मों के शेष रहने से अनेक पापरूप अशुभफलविपाक भोगने पड़ते हैं, जैसे-वध (दण्ड आदि से ताड़न, वृषण-विनाश (नपुसकीकरण), नासा-कर्तन, कर्ण-कर्तन, प्रोष्ठ-छेदन, अंगुष्ठ-छेदन, हस्त-कर्तन, चरण-छेदन, नख-छेदन, जिह्वा-छेदन-अंजन-दाह (उष्ण लोहशलाका से प्रांखों को आंजना-फोड़ना), केटाग्निदाह (वांस से बनी चटाई से शरीर को सर्व ओर से लपेट कर जलाना), हाथी के पैरों के नीचे डालकर शरीर को कुचलवाना, फरसे आदि से शरीर को फाडना, रस्सियों से बांधकर वक्षों पर लटकाना. त्रिशल-लता. लकट (मठ वाला डंडा) और लकड़ी से शरीर को भग्न करना, तपे हुए कड़कड़ाते रांगा, सीसा एवं तेल से शरीर का अभिसिंचन करना, कुम्भी (लोह-भट्टी) में पकाना, शीतकाल में शरीर पर कंपकंपी पैदा करने वाला अतिशीतल जल डालना, काष्ठ आदि में पैर फंसाकर स्थिर (दृढ़) बाँधना, भाले आदि शस्त्रों से छेदन-भेदन करना, वर्द्धकर्तन (शरीर की खाल उधेड़ना) अति भय-कारक कर-प्रदीपन (वस्त्र लपेटकर और शरीर पर तेल डालकर दोनों हाथों में अग्नि लगाना) अादि अति दारुण, अनुपम दुःख भोगने पड़ते हैं / अनेक भव-परम्परा में बंधे हुए पापी जीव पाप कर्मरूपी वल्ली के दुःख-रूप फलों को भोगे बिना नहीं छूटते हैं / क्योंकि कर्मों के फलों को भोगे विना उनसे छुटकारा नहीं मिलता / हाँ, चित्त-समाधिरूप धैर्य के साथ जिन्होंने अपनी कमर कस ली है उनके तप-द्वारा उन पाप-कर्मों का भी शोधन हो जाता है। ५५४–एतो य सुहविवागेसु णं सोल-संजम-नियम-गुण-तवोवहाणेसु साहूसु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पओग-तिकालमइविसुद्ध-भत्त-पाणाई पययमणसा हिय-सुह-नीसेस-तिवपरिणाम-निच्छिय Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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