SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 126] [समवायाङ्गसूत्र चन्द्र प्रकाशित करते थे, प्रकाशित करते हैं और प्रकाशित करेंगे / इसी प्रकार छियासठ सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे। विवेचन—जम्बूद्वीप में दो चन्द्र, दो सूर्य हैं, लवण समुद्र में चार-चार चन्द्र और चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड में बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं। कालोदधि समुद्र में बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य हैं / पुष्करार्ध में बहत्तर चन्द्र और बहत्तर सूर्य हैं। उक्त दो समुद्रों तथा आधे पुष्करद्वीप को अढ़ाई द्वीप कहा जाता है / क्योंकि पुष्करवर द्वीप के ठीक मध्य भाग में गोलाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे उस द्वीप के दो भाग हो जाते हैं। इस द्वीप के भीतरी भाग तक का क्षेत्र मानुष क्षेत्र कहलाता है, क्योंकि मनुष्यों की उत्पत्ति यहीं तक होती है / इस पुष्कर द्वीपार्ध में भी पूर्व तथा पश्चिम दिशा में एक एक इषुकार पर्वत के होने से दो भाग हो जाते हैं। उनमें से दक्षिणी भाग दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्र कहलाता है और उत्तरी भाग उत्तरार्ध मनुष्य क्षेत्र कहा जाता है / यतः मनुष्य क्षेत्र के भीतर ऊपर बताई गई गणना के अनुसार (2+4+12+42+72 = 132) सर्व चन्द्र और सूर्य एक सौ बत्तीस होते हैं। उनके ग्राधे छियासठ चन्द्र और सूर्य दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्र में प्रकाश करते हैं और छियासठ चन्द्र-सूर्य उत्तरार्धमनुष्य क्षेत्र में प्रकाश करते हैं। जब उत्तर दिशा की पंक्ति के चन्द्र-सूर्य परिभ्रमण करते हुए पूर्व दिशा में जाते हैं, तब दक्षिण दिशा की पंक्ति के चन्द्र-सर्य पश्चिम दिशा में परिभ्र करने लगते हैं / इस प्रकार छियासठ चन्द्र-सूर्य दक्षिणी पुष्करार्ध में तथा छियासठ चन्द्र-सूर्य उत्तरी पुष्करार्ध में परिभ्रमण करते हुए अपने-अपने क्षेत्र को प्रकाशित करते रहते हैं / यह व्यवस्था सनातन है, अतः भूतकाल में ये प्रकाश करते रहे हैं, वर्तमानकाल में प्रकाश कर रहे हैं और भविष्यकाल में भी प्रकाश करते रहेंगे। ३३३-सेज्जंसस्स णं अरहओ छा४ि गणा छावद्धि गणहरा होत्था। श्रेयांस अर्हत् के छयासठ गण और छयासठ गणधर थे। 334 --आभिणिबोहियणाणस्स णं उक्कोसेणं छाट्ठि सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। प्राभिनिबोधिक (मति) ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम कही गई है। (जो तीन वार अच्युत स्वर्ग में या दो वार विजयादि अनुत्तर विमानों में जाने पर प्राप्त होती है।) ॥षट्षष्टिस्थानक समवाय समाप्त / / सप्तषष्टिस्थानक-समवाय ३३५–पंचसंवच्छरियस्स गं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिज्जमाणस्स सत्तढि नक्खत्तमासा पण्णत्ता। पंचसांवत्सरिक युग में नक्षत्र मास से गिरने पर सड़सठ नक्षत्रमास कहे गये हैं / 336 हेमवय-एरन्नवयाओ णं बाहाम्रो सत्तट्टि सत्तट्टि जोयणसयाई पणपन्नाई तिण्णि य भागा जोयणस्स प्रायामेणं पण्णत्तायो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy