________________ अष्टषष्टिस्थानक समवाय ] [ 127 हैमवत और एरवत क्षेत्र की भुजाएं सड़सठ-सड़सठ सौ पचपन योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से तीन भाग प्रमाण कही गई हैं / ३३७--मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाप्रो चरमंताओ गोयमदीवस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तट्टि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्तभाग से गौतम द्वीप के पूर्वी चरमान्तभाग का सड़सठ हजार योजन विना किसी व्यवधान के अन्तर कहा गया है / विवेचन--जम्बूद्वीप-सम्बन्धी मेरुपर्वत के पूर्वी भाग से जम्बूद्वीप का पश्चिमी भाग पचपन हजार योजन दूर है / तथा वहाँ से बारह हजार योजन पश्चिम में लवणसमुद्र के भीतर जाकर गौतम द्वीप अवस्थित है / अत: मेरु के पूर्वीभाग से गौतम द्वीप का पूर्वी भाग (55+12 = 67) सड़सठ हजार योजन पर अवस्थित होने से उक्त अन्तर सिद्ध होता है। 338 --सव्वेसि पि णं णक्खत्ताणं सीमाविक्खंभेणं सट्टि भाग भइए समंसे पण्णत्ते / ___ सभी नक्षत्रों का सीमा-विष्कम्भ |दिन-रात में चन्द्र-द्वारा भोगने योग्य क्षेत्र] सड़सठ भागों से विभाजित करने पर सम अंशवाला कहा गया है। // सप्तषष्टिस्थानक समवाय समाप्त // अष्टषष्टिस्थानक-समवाय 339 -धायइसंडे णं दोवे अडसद्धि चक्कट्टिविजया, अडसटि रायहाणीनो पण्णत्तानो। उक्कोसपए अडसट्ठि अरहंता समुपज्जिसुवा, समुप्पज्जति वा, समुप्पज्जिस्संति वा। एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा / धातकीखण्ड द्वीप में अड़सठ चक्रवत्तियों के अड़सठ विजय (प्रदेश) और अड़सठ राजधानियां कही गई हैं / उत्कृष्ट पद की अपेक्षा धातकीखण्ड में सड़सठ अरहंत उत्पन्न होते रहे हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी जानना चाहिए। ३४०-पुक्खरवरदोधड्ढे णं अडट्टि विजया, अडसढि रायहाणीओ पण्णत्ताओ / उक्कोसपए अडसद्धि प्ररहतास मुपज्जिसु वा, समुप्पज्जति वा, समुप्पज्जिस्संति वा। एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा। पुष्करवर द्वीपार्ध में अड़सठ विजय और अड़सठ राजधानियां कही गई हैं। वहाँ उत्कृष्ट रूप से अड़सठ परहन्त उत्पन्न होते रहे हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार चक्रवर्ती, बलदेव.और वासुदेव भी जानना चाहिए। विवेचन–मेरुपर्वत मध्य में अवस्थित होने से जम्बूद्वीप का महाविदेह क्षेत्र दो भागों में बँट जाता है-पूर्वी महाविदेह और पश्चिमी महाविदेह / फिर पूर्व में सीता नदी के बहने से तथा पश्चिम में सीतोदा नदी के बहने से उनके भी दो-दो भाग हो जाते हैं। साधारण रूप से उक्त चारों क्षेत्रों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org