________________ 128] [समवायाङ्गसूत्र एक-एक तीर्थकर चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव उत्पन्न होते हैं / अतः एक समय में चार ही तीर्थंकर, चार ही चक्रवर्ती, चार ही बलदेव और चार ही वासूदेव उत्पन्न होते हैं। उक्त चारों खण्डों के तीन तीन अन्तर्नदियों और चार चार पर्वतों से विभाजित होने पर बत्तीस खण्ड हो जाते हैं / इनको चक्रवर्तीविजय करता है, अतः वे विजयदेश कहलाते हैं और उनमें चक्रवर्ती रहता है, अतः उन्हें राजधानी कहते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप के महाविदेह में सर्व मिला कर बत्तीस विजयक्षेत्र और राजधानियाँ होती हैं / भरत और ऐरवत क्षेत्र ये दो विजय और दो राजधानियों के मिलाने से उनकी संख्या चौतीस हो जाती है / जम्बूद्वीप से दूनी रचना धातकीखंडद्वीप में और पुष्करवरद्वीपार्ध में है, अतः (344 2-68) उनकी संख्या अड़सठ हो जाती है। इसी बात को ध्यान में रखकर उक्त सूत्र में अड़सठ विजय, अड़सठ राजधानी, अड़सठ तीर्थंकर, अड़सठ चक्रवर्ती, अड़सठ बलदेव और अड़सठ वासुदेवों के होने का निरूपण किया गया है। पाँचों महाविदेह क्षेत्रों में कम से कम बोस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं और अधिक से अधिक एक सौ साठ तक तीर्थंकर उत्पन्न हो जाते हैं। वे अपने अपने क्षेत्र में ही विहार करते हैं / यही बात चक्रवर्ती आदि के विषय में भी जानना चाहिए। उक्त संख्या में पांचों मेरु सम्बन्धी दो-दो भरत और दो दो ऐरवत क्षेत्रों के मिलाने से (160+10 = 170) एक सौ सत्तर तीर्थंकरादि एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं / यह विशेष जानना चाहिए। ३४१-विमलस्स णं अरहनो अडट्टि समणसाहस्सीमो उक्कोसिया समयसंपया होत्था। विमलनाथ अर्हन् के संघ में श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमणसम्पदा अड़सठ हजार थी। // अष्टषष्टिस्थानक समवाय समाप्त / एकोनसप्ततिस्थानक-समवाय ३४२-समयखित्ते णं मंदरवज्जा एगूणसरि वासा वासधरपव्वया पण्णता / तं जहा--- पणत्तीसं वासा, तीसं, वासहरा, चत्तारि उसुयारा / समयक्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र या अढाई द्वीप) में मन्दर पर्वत को छोड़कर उनहत्तर वर्ष और वर्षधर पर्वत कहे गये हैं। जैसे ---पैंतीस वर्ष (क्षेत्र), तीस वर्षधर (पर्वत) और चार इषुकार पर्वत / विवेचन—एक मेरुसम्बन्धी भरत आदि सात क्षेत्र होते हैं। अतः अढ़ाई द्वीपों के पाँचों मेरु सम्बन्धी पैतीस क्षेत्र हो जाते हैं। इसी प्रकार एक मेरुसम्बन्धी हिमवन्त आदि छह-छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत होते हैं, अतः पाँचों मेरुसम्बन्धी तीस वर्षधर पर्वत हो जाते हैं। तथा धातकीखण्ड के दो और पुष्करवर द्वीपार्ध के दो इस प्रकार चार इषुकार पर्वत हैं। इन सबको मिलाने पर (35+ 30+4= 69) उनहत्तर वर्ष और वर्षधर हो जाते हैं।। ३४३-मंदरस्स पव्वयस्स पच्चस्थिमिल्लाप्रो चरमंताओ गोयमदीवस्स पच्चस्थिमिल्ले चरमंते एस णं एगूणसरि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से मौतम द्वीप का पश्चिम चरमान्त भाग उनहत्तर हजार योजन अन्तरवाला विना किसी व्यवधान के कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org