________________ समवायांग के सातवें समवाय कर तेरहवाँ सूत्र-तच्चाए ण पुढवीए.......' है तो भगवती 12 में भी बालुकाप्रभा के कुछ नैरयिकों की स्थिति सात सागरोपम की वणित है / समवायांग के सातवें समवाय का चौदहवाँ सूत्र---'चउत्थीए णं पुढवीए'......' है तो भगवती312 में भी पंकप्रभा नैरयिकों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम की कही है। समवायांग के सातवें समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र--'असुरकुमाराण.......' है तो भगवती3 14 में भी कुछ कुमारों की स्थिति सात पत्योपम की वणित है। समवायांग के सातवें समवाय का सोलहवां सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु.......' है तो भगवती 15 में सौधर्म ईशान कल्प की स्थिति सात पल्योपम की बतायी है। समवायांग के सातवें समवाय का सत्तरहवां सूत्र--'सणंकमारे कप्पे देवाणं....' है तो भगवती१६ में भी सनत्कुमार देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की बतायी है। समवायांग के सातवें समवाय का अठारहवाँ सुत्र-'माहिंदे कप्पे देवाणं ........' है तो भगवती१७ में भी माहेन्द्र कल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम की बतायी है। समवायांग के सातवें समवाय का उन्नीसवां सूत्र-'बभलोए कप्पे.......' है तो भगवती3 18 में भी ब्रह्म लोक के देवों की स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम की कही है।। समवायांग के सातवें समवाय का बीसा सूत्र-'जे देवा समं समप्पभं...' है तो भगवती398 में भी सम, समप्रभ, महाप्रभ, आदि देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की कही है। समवायांग के सातवें समवाय का इक्कीसवा सूत्र---'ते णं देवा सत्तण्ह....' है तो भगवती3२० में भी सनत्कुमारावतंसक विमान में जो देव उत्पन्न होते हैं, वे सात पक्ष से श्वासोच्छ्वास लेते हैं, ऐसा कथन है। समवायांग से सातवें समवाय का बावीसवां सूत्र--'तेसि णं देवाणं .......' है तो भगवती 321 में भी सनत्कुमारावतंसक देवों की आहार लेने की इच्छा सात हजार वर्ष से होती कही है। समवायांग के आठवें समवाय का दशवां सूत्र-'इमोसे णं रयणप्पभाए........' है तो भगवती 322 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति आठ पल्योपम की कही है। 312. भगवती श. 1 उ. 1 313. भगवती श. 1 उ. 1 314. भगवती श. 1 उ. 1 315. भगवती श. 1 उ.१ 316. भगवती श. 1 उ. 1 317. भगवती श. 1 उ.१ 318. भगवती श. 1 उ. 1 319. भगवती श. 1 उ. 1 320. भगवती श. 1 उ. 1 321. भगवती श. 1 उ. 1 322. भगवती श. 1 उ. 1 [ 66 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org