________________ द्वाविंशतिस्यानक समवाय] देवाणं एक्कवोसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / ते गं देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नोससंति वा / तेसि णं देवाणं एक्कवीसाए वाससहस्सेहि आहारट्ठे समपज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / अच्युत कल्प में देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है / वहाँ जो देव श्रीवत्स, श्रीदामकाण्ड. मल्ल, कृष्ट, चापोन्नत और आरणावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। वे देव इक्कीस अर्धमासों (साढे दश मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों के इक्कीस हजार वर्षों के बाद प्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इक्कीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे, और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // एकविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / द्वाविंशतिस्थानक-समवाय १५०.-वावीसं परीसहा पण्णत्ता, तं जहा-दिगिछापरीसहे 1, पिवासापरीसहे 2, सोतपरीसहे 3, उसिणपरोसहे 4, दंसमसगपरोसहे 5, अचेलपरोसहे 6, अरइपरोसहे 7, इत्थोपरीसहे 8, चरिआपरीसहे 9, निसीहिनापरीसहे 10, सिज्जापरीसहे 11, अक्कोसपरोसहे 12, वपरोसहे 13, जायणापरीसहे 14, अलाभपरीसहे 15, रोगपरीसहे 16, तणफासपरीसहे 17, जल्लपरोसहे 18, सक्कारपुरक्कारपरीसहे 19, पण्णापरोसहे 20, अग्गाणपरोसहे 21, अदंसणपरीसहे 22 / बाईस परीषह कहे गये हैं / जैसे--१. दिगिछा (बुभुक्षा) परीषह, 2. पिपासापरोपह, 3. शीतपरीषह, 4. उष्णपरीषह, 5. दंशमशक परीषह, 6. अचेल परीषह, 7. अरतिपरीषह, 8. स्त्रीपरीषह, 9. चर्यापरोषह, 10. निषद्यापरीषह, 11. शय्यापरीषह, 12. प्राक्रोशपरीषह, 13. वधपरीषह, 14, याचनापरीषह, 15. अलाभपरोषह, 16. रोगपरीषह, 17. तृणस्पर्शपरीषह, 18. जल्लपरीषह, 19. सत्कार-पुस्कारपरीषह, 20. प्रज्ञापरीषह, 21. अज्ञानपरीषह और 22. अदर्शनपरोषह / / विवेचन--मोक्षमार्ग से पतन न हो और पूर्व संचित कर्मों को निर्जरा हो, इस भावना से भूख. प्यास शीत, उष्ण, डांस-मच्छर आदि की जो बाधा या कष्ट स्वयं समभावपूर्वक सहन किये जाते हैं, उन्हें परीषह कहा जाता है / वे बाईस हैं, जिनके नाम ऊपर गिनाये गये हैं। 151 --दिदिवायस्त णं वावीसं सुत्ताई छिन्नछेयणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताई अच्छिन्नछेयणइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताइं तिकणइयाइं तेरासियसुतपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाई समयसुत्तपरिवाडीए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org