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________________ [समवायाङ्गसूत्र १४५–णिअट्टिबादरस्स णं खवितसत्तयस्स मोहणिज्जस्स कम्मस्स एक्कवीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तं जहा-अपच्चवखाणकसाए कोहे, अप्पच्चक्खाणकसाए माणे, अप्पच्चक्खाणकसाए माया, अपच्चक्खाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणकसाए कोहे, पच्चक्खाणावरणकसाए माणे, पच्चक्खाणावरणकसाए माया पच्चक्खाणावरणकसाए लोहे, [संजलणकसाए कोहे, संजलणकसाए माणे, संजलणकसाए माया, संजलणकसाए लोहे,] इस्थिवेदे पुबेदे णपु वेदे हासे परति-रति-भय-सोगदुगु छा। जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक (मिथ्यात्व, मिथ एवं सम्यक्त्वमोहनीय) इन सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि अष्टम गुणस्थानवर्ती निवृत्तिबादर संयत के मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा गया है / जैसे--१. अप्रत्याख्यान क्रोधकषाय, 2. अप्रत्याख्यान मानकषाय, 3. अप्रत्याख्यान माया कषाय, 4. अप्रत्याख्यान लोभकषाय, 5. प्रत्याख्यानावरण क्रोधकषाय, 6. प्रत्याख्यानावरण मानकषाय, 7. प्रत्याख्यानावरण मायाकषाय, 8. प्रत्याख्यानावरण लोभकषाय, [9. संज्वलन क्रोधकषाय, 10. संज्वलन मानकषाय, 11. संज्वलन मायाकषाय, 12. संज्वलन लोभकषाय 13. स्त्रीवेद, 14. पुरुषवेद, 15. नपुसकवेद, 16. हास्य, 17. अरति, 18. रति, 19. भय, 20. शोक और 21. दुगुछा (जुगुप्सा)। 146 -एक्कमेक्काए णं ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठामो समाओ एक्कवीसं एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्तायो, तं जहा---दूसमा, दूसमदूसमा, एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-वितिमाओ समाओ एक्कवीसं एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्ताओ, तं जहा-दूसमदूसमाए, दूसमाए य / प्रत्येक अवसर्पिणी के पांचवें और छठे पारे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के काल वाले कहे गये हैं / जैसे—दुःषमा और दुःषम-दुःषमा / प्रत्येक उत्सर्पिणी के प्रथम और द्वितीय पारे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के काल वाले कहे गये हैं। जैसे-दुःषम-दुःषमा और दुःषमा। १४७-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कवीच पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगवीसपलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की कही गई है। छठी तमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम कही गई है। १४८-सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एक्कवीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। प्रारणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम कही गई है। प्रारणकल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। १४९--अच्चुते कप्पे देवाणं जहणेणं एक्कवीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामकंडं मल्लं किटें चावोण्णतं अरण्णवडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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