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________________ दशस्थानक समवाय] [25 रुइल्लसिंग रुइल्लसिटु रुइल्लकूड रुइल्लुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेति णं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई पग्णता, ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं नहिं वाससहस्सेहिं आहार? समुपज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / ___ सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देत्रों की स्थिति नौ पल्योपम है / ब्रह्मलोक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति नौ सागरोपम है / वहां जो देव पक्षम, सुपक्ष्म, पक्ष्मावर्त, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकान्त, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्मध्वज, पक्ष्मशृग, पक्ष्मसृष्ट, पक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक, तथा सूर्य, मुसूर्य, सूर्यावर्त, मूर्यप्रभ, सूर्यकान्त, सूर्यवर्ण, सूर्य लश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृग, सूर्यसृष्ट, सूर्यकूट सूर्योत्तरावतसक, [रुचिर] रुचिरावर्त, रुचिरप्रभ, रुचिरकान्त रुचिरवर्ण, रुचिरलेश्य, रुचिरध्वज, रुचिरशृग, रुचिरसृष्ट, रुचिरकुट और रुचिरोत्तरावतंसक नामवाले विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति नौ सागरोपम कही गई है / वे देव नो अर्धमासों (साढ़े चार मासों) के बाद पानप्राण-उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों को नौ हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा होती है / कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो नो भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे। नवस्थानक समवाय समाप्त / दशस्थानक समवाय 61. दसविहे समणधम्मे पण्णते, तं जहा-खंती 1, मुत्ती 2, अज्जवे 3, मद्दवे 4, लाघवे 5, सच्चे 6, संजमे 7, तवे 8, चियाए 9, बंभचेरवासे 10 / / श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है। जैसे--क्षान्ति 1, मुक्ति 2, आर्जव 3, मार्दव 4, लाघव 5, सत्य 6, संयम 7, तप 8, त्याग 9, ब्रह्मचर्यवास 10 / विवेचन -जो प्रारम्भ-परिग्रह एवं घर-द्वार का परित्याग कर और संयम धारण कर उसका निर्दोष पालन करने के लिये निरन्तर श्रम करते रहते हैं, उन्हें 'श्रमण' कहते हैं। उनको अपने विषयकषायों को जोतने के लिए क्षान्ति आदि दश धर्मों के परिपालन का उपदेश दिया गया है। कषायों में सबसे प्रधान कषाय क्रोध है। उसके जीतने के लिए क्षान्ति, सहनशीलता या क्षमा का धारण करना अत्यावश्यक है। द्वोपायन जैसे परम तपस्वियों के जीवन भर को संयम-साधना क्षण भर के क्रोध से समाप्त हो गई और वे अधोगति को प्राप्त हए। दमरी प्रबल कषाय लोभ है, उसके त्याग के लिए मुक्ति अर्थात निर्लोभता धर्म का पालन करना आवश्यक है। इसी प्रकार माया कषाय को जीतने के का और मान कषाय को जीतने के लिए मार्दव धर्म को पालने का विधान किया गया है। मान कषाय को जीतने से लाघव धर्म स्वत: प्रकट हो जाता है / तथा माया कषाय को जीतने से सत्यधर्म भी प्रकट हो जाता है / पांचों इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति को रोकने के लिये संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इन चार धर्मों के पालने का उपदेश दिया गया है / यहाँ त्याग धर्म से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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