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________________ 26] [समवायाङ्गसूत्र अभिप्राय अन्तरग-बहिरंग सभी प्रकार के संग (परिग्रह) के त्याग से है। दान को भी त्याग कहते हैं / अतः संविग्न मनोज्ञ साधुओं को प्राप्त भिक्षा में से दान का विधान भी साधुओं का कर्तव्य माना गया है / ब्रह्मचर्य के धारक परम तपस्वियों के साथ निवास करने पर ही श्रमणधर्म का पूर्ण रूप से पालन सम्भव है, अत: सबसे अन्त में उसे स्थान दिया गया है / ६२---दस चित्तसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-धचिता वा से असमुप्पण्णपुवा समुप्पज्जिज्जा सव्वं धम्म जाणित्तए 1, सुमिणदसणे वा से असमुप्पण्णपुवे समुपज्जिज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए 2, सण्णिणाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिज्जा पुत्वभवे सुमरित्तए 3, देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुपज्जिज्जा दिव्वं देविद्धि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए 4, ओहिनाणं // से असमप्पणपव्वे समयज्जिज्जा ओहिणा लोग जाणित्तए 5, प्रोहिदसणे वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुप्पज्जिज्जा प्रोहिणा लोगं पासित्तए 6, मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्णपुब्वे समुप्पज्जिज्जा जाव [अद्धतईअदीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचिदियाणं पज्जत्तगाणं] मणोगए भावे जाणित्तए 7, केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुटवे समुप्पज्जिज्जा केवलं लोगं जाणित्तए 8, केवलदंसणे वा से असमुप्पण्णपुवे समुप्पज्जिज्जा केवलं लोगं पासित्तए 9, केवलिमरणं वा मरिज्जा सव्वदुक्खप्पहीणाए 10 / चित्त-समाधि के दश स्थान कहे गये हैं / जैसे-जो पूर्व काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी सर्वज्ञ-भाषित श्रुत और चारित्ररूप धर्म को जानने की चिन्ता का उत्पन्न होना यह चित की समाधि या शान्ति के उत्पन्न होने का पहला स्थान है (1) / धर्म-चिन्ता को चित्त-समाधि का प्रथम स्थान कहने का कारण यह है कि इसके होने पर ही धर्म का परिज्ञान और पाराधन सम्भव है / जैसा पहले कभी नहीं देखा, ऐसे याथातथ्य (भविष्य में यथार्थ फल को देने वाले) स्वप्न का देखना चित्त-समाधि का दूसरा स्थान है (2) / जैसा पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा पूर्व भव का स्मरण करने वाला संज्ञिज्ञान (जातिस्मरण) होना यह चित्त-समाधि का तीसरा स्थान है। पूर्व भव का स्मरण होने पर संवेग और निर्वेद के साथ चित्त में परम प्रशममाव जागृत होता है (3) / जैसा पहले कभी नहीं हुआ, ऐसा देव-दर्शन होना, देवों की दिव्य वैभव-परिवार पादिरूप ऋद्धि का देखना, देवों की दिव्य द्युति (शरीर और प्राभूषणादि की दीप्ति) का देखना, और दिव्य देवानुभाव (उत्तम विक्रियादि के प्रभाव) को देखना यह चित्त-समाधि का चौथा स्थान है, क्योंकि ऐसा देव-दर्शन होने पर धर्म में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होतो है (4) / जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक (मूर्त पदार्थों को) प्रत्यक्ष जानने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का पांचवा स्थान है। अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर मन में एक अपूर्व शान्ति और प्रसन्नता प्रकट होती है (5) / ___ जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक को प्रत्यक्ष देखने वाला अवधिदर्शन उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का छठा स्थान है (6) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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