________________ दशस्थानक समवाय [27 जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐमा [अढ़ाई द्वीप-समुद्रवर्ती संजी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का सातवां स्थान है (7) / जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा सम्पूर्ण लोक को प्रत्यक्ष [त्रिकालवी पर्यायों के साथ जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का आठवां स्थान है (8) / जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा [सर्व चराचर] लोक को देखने वाला केवल-दर्शन उत्पन्न होना, यह चित्त-समाधि का नौंवा स्थान है (9) / सर्व दुःखों के विनाशक केवलिमरण से मरना यह चित्त-समाधि का दशवां स्थान है (10) / इसके होने पर यह प्रात्मा सर्व सांसारिक दुःखों से मुक्त हो सिद्ध बुद्ध होकर अनन्त मुख को प्राप्त हो जाता है। ६३----मंदरे णं पव्वए मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते / मन्दर (सुमेरु) पर्वत मूल में दश हजार योजन विष्कम्म (विस्तार) वाला कहा गया है / ६४–परिहा णं अरिट्टनेमि दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। कण्हे णं वासुदेवे दस धणइं उड्ड उच्चत्तेणं होत्था / रामे णं बलदेवे दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। अरिष्टनेमि तीर्थकर दश धनुष ऊँचे थे। कृष्ण वासुदेव दश धनुष ऊँचे थे। राम बलराम दश धनुष ऊँचे थे। ६५-दस नक्खत्ता नाणबुट्टिकरा पण्णत्ता, तं जहा मिगसिर अद्दा पुस्सो तिणि य पुवा य मूलमस्सेमा / हत्थो चित्तो य तहा दस बुट्टिकराई नाणस्स // 1 // दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गये हैं यथा--मृगशिर, ग्रा, पुष्य, तीनों पूर्वाएं (पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वा भाद्रपदा) मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा, ये दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करते हैं / अर्थात् इन नक्षत्रों में पढ़ना प्रारम्भ करने पर ज्ञान शीघ्र और विपुल परिमाण में प्राप्त होता है। ६६-अकम्मभूमियाणं मणुआणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवस्थिया पण्णत्ता, तं जहा मत्तंगया य भिगा, तुडिअंगा दीव जोइ चित्तंगा। चित्तरसा मणि अंगा, गेहागारा अनिगिणा य // 1 // अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग के लिए दश प्रकार के वृक्ष (कल्पवृक्ष) उपस्थित रहते हैं। जैसे -- मद्यांग, भृग, तूर्यांग, दीपांग, ज्योतिरंग, चित्रांग, चित्तरस, मण्यंग, गेहाकार और अनग्नांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org