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________________ 24] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन -जो नक्षत्र जितने समय तक चन्द्र के साथ रहता है, वह उसका चन्द्र के साथ योग कहलाता है / अभिजित् आदि जो नौ नक्षत्र उत्तर की ओर रहते हुए चन्द्र के साथ योग का अनुभव करते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं- अभिजित्, रेवती, उत्तराभाद्रपदा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक, पूर्वाभाद्रपदा, अश्विनी, भरणी / ___५६-इमोसे णं रयणप्पभाए बहुसमरमणिज्जाम्रो भूमिभागापो नव जोयणसए उद्धं अबाहाए उरिल्ले तारारूवे चारं चरई। जम्बुद्दीवे गं दीवे नवजोयणिया मच्छा पविसिसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा / विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए नव नव भोमा पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से नौ सो योजन ऊपर अन्तर करके उपरितन भाग में ताराएं संचार करती हैं। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में नौ योजन वाले मत्स्य भूतकाल में नदीमुखों से प्रवेश करते थे, वर्तमान में प्रवेश करते हैं और भविष्य में प्रवेश करेंगे। जम्बूद्वीप के विजय नामक पूर्व द्वार की एक-एक बाहु (भुजा) पर नौ-नौ भौम (विशिष्ट स्थान या नगर) कहे गये हैं। ५७–वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुहम्मानो नव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्तानो। वानव्यन्तर देवों को सुधर्मा नाम की सभाएं नौ योजन ऊंची कही गई हैं / 58. -दसणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स नव उत्तरपगडीओ पण्णत्तानो, तं जहा-निद्दा पयला निद्दानिहा पयलापयला थोणद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवलदसणावरणे। दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियां कही गई हैं। जैसे—निद्रा, प्रचला, निद्वानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धि, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवल दर्शनावरण / 59- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं नव पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं नव पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ___ इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति नो पल्योपम है। चौथी पकप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति नौ सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति नौ पल्योपम है। ६०–सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं नव पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। बंभलोए कप्पे अस्थेगइयाणं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावतं पम्हप्पभं पम्हकंतं पम्हवणं पम्हलेसं पम्हज्शयं पम्हसिगं पम्हसिट्ठ पम्हकडं पम्हुत्तरवडिसगं, सुज्जं सुसुज्ज सुज्जावात्तं सुज्जपभं सुज्जकंतं सुज्जवण्णं सुज्जलेसं सुज्जज्झयं सुज्झसिगं सुज्जसिटु सुज्जकूडं सुज्जुत्तरडिसगं, [रुइल्लं] रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पभं रुइल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइल्लेसं रुइल्लज्झयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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