________________ विविधविषयनिरूपण] [201 विवेचन-आगे दी गई गाथा संख्या एक के अनुसार दूसरी पृथिवी एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटी है। उसके एक हजार योजन ऊपर का और एक हजार नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख तीस हजार योजन भू-भाग में पच्चीस लाख नारकावास हैं। तीसरी पृथिवी एक लाख अट्ठाईस हजार योजन मोटी है। उसके एक हजार योजन ऊपर का और एक हजार योजन नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख छब्बीस हजार योजन भू-भाग में पन्द्रह लाख नारकावास हैं। चौथी पृथिवी एक लाख बीस हजार योजन मोटी है / उसके ऊपर तथा नीचे की एक एक हजार योजन भूमि को छोड़कर शेष एक लाख अठारह हजार योजन भू-भाग में दश लाख नारकावास हैं। पांचवीं पृथिवी एक लाख अठारह हजार योजन मोटी है। उसके एक एक हजार योजन ऊपरी वा नीचे का भाग छोड़कर शेष मध्यवर्ती एक लाख सोलह हजार योजन भू-भाग में तीन लाख नारकावास हैं / छठी पृथिवी एक लाख सोलह हजार योजन मोटी है, उसके एक-एक हजार योजन ऊपरी और नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख चौदह हजार योजन भू-भाग में पांच कम एक लाख (99995) नारकावास हैं / सातवीं पृथिवी एक लाख आठ हजार योजन मोटी है। उसके 521, 523 हजार योजन ऊपरी तथा नीचे के भाग को छोड़कर मध्य में पांच नारकावास हैं। उसमें अप्रतिष्ठान नाम का नारकावास ठीक चारों नारकावासों के मध्य में है और शेष काल, महाकाल, रोरुक और महारौरुक नारकावास उसकी चारों दिशाओं में अवस्थित हैं। सभी पृथिवियों में नारकावास तीन प्रकार के हैं--इन्द्रक, श्रेणीबद्ध (पावलिकाप्रविष्ट) और पुष्पप्रकीर्णक (प्रावलिकाबाह्य)। इन्द्रक नारकावास सबके बीच में होता है और श्रेणीबद्ध नारकावास उसकी आठों दिशाओं में अवस्थित हैं। पुष्पप्रकीर्णक या पावलिकाबाह्य नारकावास श्रेणिबद्ध नारकावासों के मध्य में अवस्थित हैं / इन्द्रक नारकावास गोल होते हैं और शेष नारकावास त्रिकोण चतुष्कोण आदि नाना आकार वाले कहे गये हैं। तथा नीचे की ओर सभी नारकावास क्षुरप्र (खुरपा) के आकार वाले हैं। ५८३–आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च / अट्ठारस सोलसगं अछुत्तरमेव बाहल्लं // 1 // तीसा य पण्णवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई। तिण्णगं पंचणं पंचेव अणत्तरा नरगा // 2 // चउसट्ठी असुराणं चउरासीइंच होइ नागाणं / वावत्तरि सुवन्नाणं वाउकुमाराण छण्णउई // 3 // दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिद-थणियमग्गोणं / छण्ड पि जवलयाणं छावत्तरिमो य सयसहस्सा // 4 // बत्तीसट्ठावीसा वारस अड चउरो य सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च सया सहस्सारे // 5 // आणय-पाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिन्नि / सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएस कप्पेसु // 6 // एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु सत्त्त्तरं च मज्झिमए / सय मेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तर विमाणा // 7 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org