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________________ विशतिस्थानक समवाय] विंशतिस्थानक-समवाय १४०-वीसं असमाहिठाणा पण्णत्ता, तं जहा–दवदवचारि यावि भवइ 1, अपमज्जियचारि यावि भवइ 2, दुप्पमज्जियचारि यावि भवइ 3, अतिरित्तसेज्जाणिए 4, रातिणियपरिभासी 5, थेरोवघाइए 6, भूओवघाइए 7, संजलणे 8, कोहणे 9, पिट्टिमंसिए 10, अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारइत्ता भवइ 11, णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाएत्ता भवइ 12, पोराणाणं अधिकरणाणं खामिन विउसविआणं पुणोदीरत्ता भवइ 13, ससरक्खपाणिपाए 14, अकालसज्झायकारए यावि भवई 15, कलहकरे 16, सद्दकरे 17, झंझकरे 16, सूरप्पमाणभोई 19, एसणाऽसमिते आवि भव।२०। बोस असमाधिस्थान कहे गये हैं। जैसे---१. दव-दव या धप-धप करते हुए जल्दी-जल्दी जलना, 2. अप्रमाजितचारी होना, 3. दुष्प्रमार्जितचारी होना, 4. अतिरिक्त शय्या-ग्रासन रखना 5. रानिक साधुओं का पराभव करना, 6. स्थविर साधुओं को दोष लगाकर उनका उपघात या अपमान करना, 7. भूतों (एकेन्द्रिय जीवों) का व्यर्थ उपघात करना, 8. सदा रोषयुक्त प्रवृत्ति करना, 9. अतिक्रोध करना, 10. पीठ पीछे दूसरे का अवर्णवाद करना, 11. निरन्तर-सदा ही दूसरों के गुणों का विलोप करना, जो व्यक्ति दास या चोर नहीं है, उसे दास या चोर आदि कहना, 12. नित्य नये अधिकरणों (कलह अथवा यन्त्रादिकों) को उत्पन्न करना, 13. क्षमा किये हुए या उपशान्त हुए अधिकरणों (लड़ाई-झगड़ों) को पुन: पुन: जागृत करना, 14. सरजस्क (सचेतन धूलि आदि से युक्त हाथ-पैर रखना, सरजस्क हाथ वाले व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना और सरजस्क स्थंडिल आदि पर चलना, सरजस्क आसनादि पर बैठना, 15. अकाल में स्वाध्याय करना और काल में स्वाध्याय नहीं करना, 16. कलह करना, 17. रात्रि में उच्च स्वर से स्वाध्याय और वार्तालाप करना, 18. गण या संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना, 19. सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त होने तक खाते-पीते रहना तथा 20. एषणासमिति का पालन नहीं करना और अनेषणीय भक्त-पान को ग्रहण करना / विवेचन-जिन कार्यों के करने से अपने या दूसरे व्यक्तियों के चित्त में संक्लेश उत्पन्न हो उनको असमाधिस्थान कहते हैं। सूत्र-प्रतिपादित सभी कार्यों से दूसरों को तो संक्लेश और दुःख होता ही है, साथ ही उक्त कार्यों के करने वालों को भी विना देखे, शोधे धप-धप करते हुए चलने पर ठोकर आदि लगने से, तथा साँप, बिच्छू आदि के द्वारा काट लिए जाने पर महान् संक्लेश और दुःख उत्पन्न होता है। साधु मर्यादा से अधिक शय्या-पासनादि के रखने पर, दूसरों का पराभव करने पर, गुरुजनादिकों का अपमान करने पर और नित्य नये झगड़े-टंटे उठाने पर संघ में विक्षोभ उत्पन्न होता है और संघ द्वारा बहिष्कार कर दिये जाने पर तथा दिन भर खाने से रोगादि हो जाने पर स्वयं को भी भारी दुःख पैदा होता है / इसलिए उक्त सभी बीसों कार्यों को असमाधिस्थान कहा गया है। १४१----मुणिसुब्बए णं अरहा वीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। सब्वेवि अ घणोदही बीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता। पाणयस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वीसं सामाणिअसाहस्सीओ पण्णताओ। णपुसयवेयणिज्जस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधनो बंधठिई पण्णत्ता। पच्चक्खाणस्स णं पुवस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता। उस्सप्पिणिओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवम कोडाकोडीओ कालो पण्णत्तो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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