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________________ 60] [समवायाङ्गसूत्र क्षेत्र या कुलाचल (वर्षधर) की जितनी शलाकाएं हैं, उनसे इसे गुणित करने पर उस विवक्षित क्षेत्र या कुलाचल का विस्तार निकल पाता है / १३७-एगूणवीसं तित्थयरा अगारवासमझे वसित्ता मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिअं पव्वइआ। उन्नीस तीर्थकर अगार-वास में रह कर फिर मुडित होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या को प्राप्त हुए–गृहवास त्याग कर दीक्षित हुए। विवेचन-वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर, ये पांच तीर्थंकर कुमार अवस्था में ही प्रवजित हुए / शेष उन्नीस तीर्थंकरों ने गृहवास छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण की। १३८--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं एगूणवीसपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणवीसपलिओबमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कम्पेसु अत्थेगइयाण देवाणं एगूणवीसपलिओवमाई ठिई पण्णत्ता प्राणयकप्पे अत्थेगइयाण देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति उन्नीस पल्यापम कही गई है। प्रानत कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। १३९-पाणए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं जहण्णणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई पण्णता / जे देवा आणतं पाणतं गतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकतं इंदुत्तरवडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा एगणवीसाए अद्धमासाणं प्राणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं एगूणवोसाए वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुपज्जइ / ___ संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बज्झिस्संति मुच्चि. स्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / प्राणत कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। वहां जो देव आनत, प्राणत, नत, विनत, घन, सुषिर, इन्द्र, इन्द्रकान्त और इन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। वे देव उन्नोस अर्धमासों (साढ़े नौ मासों) के बाद ग्रान-प्राण या उच्छवास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के उन्नीस हजार वर्षों के बाद प्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है / कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो उन्नीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥एकोनविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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