________________ 166] [समवायाङ्गसत्र निषध वर्षधर पर्वत के उपरिम शिखरतल से इस रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम कांड के बहुमध्य देश भाग का अन्तर नौ सौ योजन है। इसी प्रकार कीलवन्त पर्वत का भी अन्तर नौ सौ योजन का समझना चाहिए। वर्षधर पर्वतों में निषध पर्वत तीसरा और नीलवन्त पर्वत चौथा है। दोनों का अन्तर समान है। ४८३--सव्वे वि णं गेवेज्जविमाणे दस-दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते / सव्वे वि णं जमगपव्वया दस-दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। दस-दस गाउय. सयाई उब्वेहेणं पण्णत्ता / मूले दस-दस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता / एवं चित्त-विचित्तकडा विभाणियव्वा / सभी ग्रैवेयक विमान दश-दश सौ (1000) योजन ऊंचे कहे गये हैं। सभी यमक पर्वत दश-दश सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। तथा वे दश-दश सौ गव्यूति (1000 कोश) उद्वेध वाले कहे गये हैं / वे मूल में दश-दश सौ योजन आयाम-विष्कम्भ वाले हैं। इसी प्रकार चित्र-विचित्र कूट भी कहना चाहिए। विवेचन-नीलवन्त वर्षधर पर्वत के उत्तर में सीता महानदी के दोनों किनारों पर उत्तरकुरु में यमक नाम के दो पर्वत हैं / इसी प्रकार देवकुरु में सोतोदा नदी के दोनों किनारों पर निषध पर्वत के दक्षिण में चित्र-विचित्र नाम के दो पर्वत हैं / यतः अढ़ाई दीप में पाँच-पाँच सीता और सीतोदा नदियां हैं, अत: उनके दश-दश यमक कूटों का निर्देश प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। वे सभी एक-एक हजार योजन ऊंचे, एक-एक हजार कोश भूमि में गहरे और गोलाकार होने से सर्वत्र एक-एक हजार योजन पायाम-विष्कम्भ वाले अर्था 484 - सव्वे वि णं वट्टवेयड्ढपव्वया दस-दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चतेणं पण्णता / दस-दस गाउयसयाई उध्वेहेणं पण्णत्ता।मूले दस-दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता / सम्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया पण्णत्ता। सभी वृत्त वैताढ्य पर्वत दश-दश सौ योजन ऊंचे हैं। उनका उदध दश-दश सौ गव्यूति है। वे मूल में दश-दश सौ योजन विष्कम्भ वाले हैं। उनका आकार ऊपर-नीचे सर्वत्र पत्यक (ढोल) के समान गोल है। 485 –सव्वे वि णं हरि-हरिस्तहकडा वक्खारकडवज्जा दस-दस जोयणसयाई उड़द उच्चत्तेणं पण्णत्ता / मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं [पण्णत्ता] / एवं बलकूडा वि नंदणकूडवज्जा। वक्षार कूट को छोड़ कर सभी हरि और हरिस्सह कट दश-दश सौ योजन ऊंचे हैं और मूल में दश सौ योजन विष्कम्भ वाले हैं। इसी प्रकार नन्दन-कूट को छोड़ कर सभी वलकूट भी दश सौ योजन विस्तार वाले जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org