________________ छिहत्तरहवें समवाय का दूसरा संत्र-'एवं दीव-दिसा-उदहीणं .......' है तो प्रज्ञापना५६८ में भी द्वीपमार दिशाकुमार आदि के छिहत्तर लाख भवन बताये हैं। अस्सीवें समवाय का छठा सत्र--'ईसाणस्स देविंदस्स......' है तो प्रज्ञापना५६६ में भी ईशान देवेन्द्र के अस्सी हजार सामानिक देव बताये हैं। चौरासीवें समवाय का छठा सूत्र-'सब्वेवि गं बाहिरया मंदरा.......' है तो प्रज्ञापना६०० में भी ऐसा ही वर्णन है। चौरासीवें समवाय का बारहवां सूत्र--'चोरासीइ पइन्नग'.......' है तो प्रज्ञापना 01 में भी ऐसा ही कथन है। छियानवेवें समवाय का दूसरा सूत्र-'वायुकुमाराणं छष्णउइ.......' है तो प्रज्ञापना६ 0 2 में भी वायुकुमार के छानवे लाख भवन बताये हैं। निन्यानवेवें समवाय का सातवां सत्र-'दक्खिना ओ पं कट्ठामो....' है तो प्रज्ञापना 03 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के अंजनकाण्ड के नीचे के चरमान्त से व्यन्तरों के भौमेय विहारों के ऊपरी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर निन्यानवे सौ योजन का है। डेढ़सौवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'आरणे कप्पे........' है तो प्रज्ञापना०४ में भी आरण कल्प के डेढ़ सौ विमान बताये हैं। ढाई सौवें समवाय' का द्वितीय सूत्र-'असुरकुमाराणं........' है तो प्रज्ञापना 05 में भी असुरकुमारों के प्रासाद ढाई सौ योजन ऊँचे बताये हैं। चार सौवें समवाय का चतुर्थ सूत्र-'आणयपाणएसु.......' है तो प्रज्ञापना३०६ में भी प्रानत और प्राणत इन दो कल्पों में चार सौ विमान बताये हैं। पाठ सौवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'इमीसे रयणप्पहाए.......' है तो प्रज्ञापना 07 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रति सम रमणीय भूभाग से आठ सौ योजन के ऊपर सूर्य गति करता कहा गया है। छह हजारवें समवाय का प्रथम सत्र-'सहस्सारे णं कप्पे......' है तो प्रज्ञापना६०८ में भी सहस्रार कल्प में छह हजार विमान बताये हैं। ___ आठ लाखवें समवाय का प्रथम सूत्र---'माहिदे णं कप्पे........' है तो प्रज्ञापना६०६ में भी माहेन्द्र कल्प में पाठ लाख विमान बताये हैं। 598. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 46 599. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 600. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 52 601. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 46 602. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 37 603. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 28 604. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 605. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 28 606. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 53 607. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 47 608. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 609. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 [ 92 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org