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________________ 208] [समवायाङ्गसूत्र __ गौतम ! [पृथिवीकायिक प्रादि की अपेक्षा जघन्य शरीर-अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट शरीर-अवगाहना [बादर वनस्पतिकायिक की अपेक्षा] कुछ अधिक एक हजार योजन कही गई है। इस प्रकार जैसे अवगाहना संस्थान नामक प्रज्ञपना-पद में औदारिकशरीर की अवगाहना का प्रमाण कहा गया है, वैसा ही यहाँ सम्पूर्ण रूप से कहना चाहिए। इस प्रकार यावत् मनुष्य की उत्कृष्ट शरीर-अवगाहना तीन गव्यूति (कोश) कही गई है। ५९८-कइविहे गं भंते ! वेउब्वियसरीरे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते-एगिदियदेउव्वियसरीरे य पंचिदिय-वेउब्वियसरीरे अ / एवं जाव सणंकुमारे आढत्तं जाव अनुत्तराणं भवधारणिज्जा जाव तेसि रयणी परिहायइ / भगवन् ! वैक्रियिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वैक्रियिकशरीर दो प्रकार का कहा गया है—एकेन्द्रिय वैक्रियिक शरीर और पंचेन्द्रिय वैऋियिकशरीर / इस प्रकार यावत् सनत्कुमार-कल्प से लेकर अनुत्तर विमानों तक के देवों का वैक्रियिक भवधारणीय शरीर कहना / वह क्रमशः एक-एक रत्नि कम होता है / विवेचन-वैक्रियिकशरीर एकेन्द्रियों में केवल वायुकायिक जीवों के ही होता है / विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम तिर्यचों के वह नहीं होता है। नारकों में, भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क देवों में, सौधर्म ईशान कल्पों के देवों में और सनत्कुमारकल्प से लेकर अनुत्तर विमानवासी देवों तक वैक्रियिक शरीर होता है / नारकों का भवधारणीय शरीर सातवें नरक में पांच सौ धनुष से लेकर घटता हुआ प्रथम नरक में सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल होता है / भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान कल्पवासी देवों का भवधारणीय शरीर सात रत्नि या हाथ होता है। सनत्कुमार-माहेन्द्र देवों का भवधारणीय शरीर छह हाथ होता है। ब्रह्म-लान्तक देवों का पाँच हाथ, महाशुक्र-सहस्रार देवों का चार हाथ, आनत-प्राणत, पारण-अच्युत देवों का तीन हाथ, ग्रंवेयक देवों का दो हाथ और अनुत्तर विमानवासी देवों का भवधारणीय शरीर एक हाथ होता है / जो तिर्यंच गर्भज हैं, और जो मनुष्य गर्भज हैं, उनके भवधारणीय वैक्रियिक शरीर नहीं होता है, किन्तु लब्धिप्रत्यय-जनित वैक्रियिक शरीर ही किसी-किसी के होता है। सबमें नहीं। उनमें भी वह कर्मभूमिज, संख्यातवर्षायुक्त और पर्याप्तक जीवों के ही होता है। उत्तर-वैक्रियिक शरीर मनुष्य के उत्कृष्ट कुछ अधिक एक लाख योजन की अवगाहनावाला होता है और देवों के एक लाख योजन अवगाहना वाला / तिर्यंचों के उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व योजन अवगाहना वाला हो सकता है। ५९९–आहारयसरीरे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा! एगाकारे पन्नत्ते / जइ एगाकारे पन्नते, कि मणुस्स-पाहार यसरीरे अमणुस्स-आहारयसरीरे ? गोयमा! मणुस्स-पाहारगसरीरे, णो अमणुस्स-आहारगसरीरे। एवं जइ मणुस्स-पाहारगसरीरे, कि गब्भवक्कंतियमणुस्स-आहारगसरीरे, संमुच्छिममणुस्सपाहारगसरीरे? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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