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________________ सप्तदशस्थानक समवाय] १२१.-सत्तरसविहे मरणे पण्णत्ते / तं जहा--प्रावीईमरणे अोहिमरणे आयंतियमरणे बलायमरणे वसट्टमरणे अंतोसल्लमरणे तब्भवमरणे बालमरणे पंडितमरणे बालपंडितमरणे छउमत्थमरणे केवलिमरणे वेहाणसमरणे गिद्धपिट्ठमरणे भत्तपच्चक्खाणमरणे इंगिणिमरणे पायोवगमणमरणे। मरण सत्तरह प्रकार का कहा गया है। जैसे—१. प्रावीचिमरण, 2. अवधिमरण, 3. प्रात्यन्तिकमरण, 4. वलन्मरण, 5. वशार्तमरण, 6. अन्तःशल्यभरण, 7. तद्भवमरण, 8. बालमरण, 9. पंडितमरण, 10. बालपंडितमरण, 11. छद्मस्थमरण, 12. केवलिमरण, 13. वैहायसमरण, 14. मृद्धस्पृष्ट या गृध्रपृष्ठमरण, 15. भक्तप्रत्याख्यानमरण, 16. इंगिनीमरण, 17. पादपोपगमनमरण / विवेचन-विवरण इस प्रकार है 1. प्रावीचिमरण-जल की तरंग या लहर को वीचि कहते हैं। जैसे जल में वायु के निमित्त से एक के बाद दूसरी तरंग उठती रहती है, उसी प्रकार आयुकर्म के दलिक या निषेक प्रतिसमय उदय में आते हुए झड़ते या विनष्ट होते रहते हैं / प्रायुकर्म के दलिकों का झड़ना ही मरण है / अतः प्रतिसमय के इस मरण को आवीचिमरण कहते हैं। अथवा वीचि नाम विच्छेद का भी है। जिस मरण में कोई विच्छेद या व्यवधान न हो, उसे प्रावीचिमरण कहते हैं। ह्रस्व प्रकार के स्थान पर दीर्घ आकार प्राकृत में हो जाता है। 2. अवधिमरण-अवधि सीमा या मर्यादा को कहते हैं। मर्यादा से जो मरण होता है, उसे अवधिमरण कहते हैं। कोई जीव वर्तमान भव की आयु को भोगता हुअा अागामी भव की भी उसी आयु को बाँधकर मरे और आगामी भव में भी उसी आयु को भोगकर मरेगा, तो ऐसे जीव के वर्तमान भव में मरण को अवधिमरण कहा जाता है / तात्पर्य यह कि जो जोव आयु के जिन दलिकों को अनुभव करके मरता है, यदि पुनः उन्हीं दलिकों का अनुभव करके मरेगा, जो वह अवधिमरण कहलाता है। 3. आत्यन्तिकमरण--जो जीव नारकादि के वर्तमान प्रायुकर्म के दलिकों को भोगकर मरेगा और मर कर भविष्य में उस प्रायु को भोगकर नहीं मरेगा, ऐसे जीव के वर्तमान भव के मरण को प्रात्यन्तिकमरण कहते हैं। 4. वलन्मरण-संयम, व्रत, नियमादि धारण किये हुए धर्म से च्युत या पतित होते हुए अवतदशा में मरने वाले जीवों के मरण को वलन्मरण कहते हैं। 5. वशार्तमरण- इन्द्रियों के विषय के वश होकर अर्थात् उनसे पीड़ित होकर मरने वाले जीवों के मरण को वशार्तमरण कहते हैं / जैसे रात में पतंगे दीपक की ज्योति से आकृष्ट होकर मरते हैं, उसी प्रकार किसी भी इन्द्रियों के विषय से पीड़ित होकर मरना वशार्तमरण कहलाता है / 6. अन्तःशल्यमरण-मन के भीतर किसी प्रकार के शल्य को रख कर मरने वाले जीव के मरण को अन्तःशल्यमरण कहते हैं / जैसे कोई संयमी पुरुष अपने व्रतों में लगे हुए दोषों की लज्जा, अभिमान आदि के कारण पालोचना किये विना दोष के शल्य को मन में रखकर मरे। 7. तद्भवमरण--जो जीव वर्तमान भव में जिस आयु को भोग रहा है, उसी भव के योग्य प्रायु को बाँधकर यदि मरता है, तो ऐसे मरण को तद्भवमरण कहा जाता है। यह मरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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