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________________ 54] [समवायाङ्गसूत्र मनुष्य या तिथंच गति के जीवों का हो होता है / देव या नारकों का नहीं होता है, क्योंकि देव या नारकी मर कर पुन: देव या नारकी नहीं हो सकता, ऐसा नियम है। उनका जन्म मनुष्य या तियंच पंचेन्द्रियों में ही होता है। 8. बालमरण-पागम भाषा में अविरत या मिथ्यादृष्टि जीव को 'बाल' कहा जाता है। मिथ्यादष्टि और असंयमी जीवों के मरण को बालमरण कहते हैं। प्रथम गुणस्थान के जीवों का मरण बालमरण कहलाता है। 9. पंडितमरण-संयम सम्यग्दृष्टि जोव को पंडित कहा जाता है। उसके मरण को पंडितमरण कहते हैं। छठे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक का मरण पंडितमरण कहलाता है। 10. बालपंडितमरण-देशसंयमी पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकव्रती मनुष्य या तिर्यंच पंचेन्द्रिय जोव के मरण को वाल-पंडितमरण कहते हैं / 11. छद्मस्थमरण-केवलज्ञान उत्पन्न होने के पूर्व बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। छद्मस्थों के मरण को छद्मस्थमरण कहते हैं। 12. केवलिमरण केवलज्ञान के धारक अयोगिकेवली के सर्व दुःखों का अन्त करने वाले मरण को केवलिमरण कहते हैं / तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगिजिन भी केवलो हैं, किन्तु तेरहवें गुणस्थान में मरण नहीं होता है। 13. वैहायसमरण-विहायस् नाम अाकाश का है / गले में फांसी लगाकर किसी वृक्षादि से अधर लटक कर मरने को वैहायसमरण कहते हैं / 14. गुद्धस्पृष्ट या गिद्धपृष्ठमरण-'गिद्धपिटु' इस प्राकृत पद के दो संस्कृत रूप होते हैंगृध्रस्पृष्ट और गृध्रपृष्ठ / प्रथम रूप के अनुसार गिद्ध, चील आदि पक्षियों के द्वारा जिसका मांस नोंचनोंच कर खाया जा रहा हो, ऐसे जीव के मरण को गृध्रस्पृष्टमरण कहते हैं। दूसरे रूप के अनुसार मरे हुए हाथी ऊंट आदि के शरीर में प्रवेश कर अपने शरीर को गिद्धों आदि का भक्ष्य बनाकर मरने वाले जीवों के मरण को गृद्धपृष्ठमरण कहते हैं। 15. भक्तप्रत्याख्यानमरण--उपसर्ग पाने पर, दुष्काल पड़ने पर, असाध्य रोग के हो जाने पर या जरा से जर्जरित शरीर के हो जाने पर यावज्जीवन के लिए त्रिविध या चतुर्विध आहार का यम नियम रूप से त्याग कर संल्लेखना या संन्यास धारण करके मरने वाले मनुष्य के मरण को भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं / इस मरण से मरने वाला अपने आप भी अपनी वैयावृत्त्य (सेवा-टहल) करता है और यदि दूसरा व्यक्ति करे तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। 16. इंगिनीमरण--जो भक्तप्रत्याख्यानी दूसरों के द्वारा की जाने वाली वेयावृत्त्य का त्याग कर देता है और जब तक सामर्थ्य रहती है, तब तक स्वयं ही प्रतिनियत देश में उठता-बैठता और अपनो सेवा-टहल करता है, ऐसे साधु के मरण को इंगिनोमरण कहते हैं / 17. पादपोपगममरण-पादप नाम वृक्ष का है, जैसे वृक्ष वायु आदि के प्रबल वेग से जड़ से उखड़ कर भूमि पर जैसा पड़ जाता है, उसी प्रकार पड़ा रहता है, इसी प्रकार जो महासाधु भक्तपान का यावज्जीवन परित्याग कर और स्व-पर की वैयावृत्त्य का भी त्याग कर, कायोत्सर्ग, पद्मासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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