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________________ सप्तदशस्थानक समवाय] [55 या मृतकासन आदि किसी आसन से प्रात्म-चिन्तन करते हुए तदवस्थ रहकर प्राण त्याग करता है, उसके मरण को पादपोपगमनमरण कहते हैं / १२२---सुहुमसंपराए णं भगवं सुहुमसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति / तं जहा-आभिणिबोहियणाणावरणे सुयणाणावरणे प्रोहिणाणावरणे मणपज्जवणाणावरणे केवलणाणावरणे चक्खुदंसणावरणे अचवखुदंसणावरणे ओहिदसणावरणे केवलदसणावरणे सायावेयणिज्जं जसोकित्तिनाम उच्चागोयं दाणंतरायं लाभतरायं भोगतरायं उवभोगंतरायं वीरिअअंतरायं। सूक्ष्मसाम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्मसाम्पराय भगवान् केवल सत्तरह कर्म-प्रकृतियों को बाँधते हैं। जैसे-.१. ग्राभिनिबोधिज्ञानावरण, 2. श्रतज्ञानावरण, 3. अवधिज्ञानावरण, 4. मनःपर्ययज्ञानावरण, 5. केवलज्ञानावरण, 6. चक्षुर्दर्शनावरण, 7. अचक्षुर्दर्शनावरण, 8. अवधिदर्शनावरण, 9. केवलदर्शनावरण, 10. सातावेदनीय, 11. यशस्कीर्तिनामकर्म, 12. उच्चगोत्र, 13. दानान्त राय, 14. लाभान्तराय, 15. भोगान्तराय, 16. उपभोगान्तराय और 17. वीर्यान्तराय। १२३–पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहण्णणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ___ पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की जघन्य स्थिति सत्त रह सागरोपम कही गई है। छठी पृथ्वी तमःप्रभा में किन्हीं-किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सत्तरह पत्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सत्तरह पल्योपम कही गई है / महाशुक्र कल्प में देवों को उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम कही १२४-सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णणं सत्तरस सागरोषमाइं ठिई पण्णता / जे देवा सामाणं सुसामाणं महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पोंडरीअं महापोंडरीअं सुक्कं महासुक्कं सोहं सोहकतं सीहवीअं भावि विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा सत्तरसहि अद्धमासेहिं प्राणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं सत्तरसहि वाससहस्सेहिं आहारट्ठ समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तरसहि भवग्गहर्णेहि सिमिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सहस्रार कल्प में देवों को जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोषम है। वहां जो देव, सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौण्डरीक, महापौण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह, सिंहकान्त, सिंहबीज, और भावित नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम की होती है / वे देव सत्तरह अर्धमासों (साढ़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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