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________________ 82] [ समवायाङ्गसूत्र 24 प्रादेय-अनादेय नामों में से कोई एक, [25 सुभगनाम, 26 सुस्वरनाम, 17 यशस्कोत्तिनाम और 28 निर्माण नाम, इन अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है / १८८-एवं चेव नेरइया वि, णाणतं-अप्पसत्थविहायोगइनामं हुंडगसंठाणणामं अथिरणाम दुब्भगणामं असुभणामं दुस्सरणामं अणादिज्जणामं अजसोकित्तिणामं निम्माणणाम / इसी प्रकार नरकगति को बांधनेवाला जीव भी नामकर्म की अट्राईस प्रकृतियों को बांधता है / किन्तु वह प्रशस्त प्रकृतियों के स्थान पर अप्रशस्त प्रकृतियों को बांधता है। जैसे-अप्रशस्त विहायोगतिनाम, हुंडकसंस्थाननाम, अस्थिरनाम, दुर्भगनाम, अशुभनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयशस्कोत्तिनाम और निर्माणनाम / इतनी मात्र ही भिन्नता है। १८९-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोधमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई पण्णता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पथिवी में कितनेक नारकों को स्थिति पटाईस पल्योषम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति अट्ठाईस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमारों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। १९०---उवरिमहेद्विमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेज्जएसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति बा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहि सिन्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम की है। जो देव मध्यम-उपरिम ग्रेवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति अट्ठाईस सागरोपम होती है / वे देव अट्ठाईस अर्धमासों (चौदह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों को अट्ठाईस हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अट्ठाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // अष्टाविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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