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________________ द्वात्रिंशत्स्थानक समवाय] [93 इकत्तीस पल्योपम की है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम कही २०८-विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिआणं देवाणं जहण्णणं एकत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा उवरिम-उवरिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा एक्कत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा / तेसि णं देवाणं एक्कत्तीसं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कत्तीसेहिं भवग्गहहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरोपम कही गई है। जो देव उपरिम-उपरिम अवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति इकत्तीस सागरोपम कही गई है / वे देव इकत्तीस अर्धमासों (साढ़े पन्द्रह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के इकत्तीस हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इकत्तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे। // एकत्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त // द्वात्रिंशत्स्थानक-समवाय २०९-बत्तीसं जोगसंगहा पण्णता / तं जहा--- आलोयण 1, निरवलावे 2, आवईसु दढधम्मया 3 / अणिस्सिओवहाणे 4, य, सिक्खा 5, निप्पडिकम्मया 6 // 1 // अण्णायया अलोमे 8, य, तितिक्खा 9, अज्जवे 10, सुई 11 / सम्मदिट्ठी 12, समाही 13, य, आयारे 14, विणग्रोवए 15 // 2 // धिइमई 16, य, संवेगे 17, पणिही 18, सुविहि 19, संवरे 20 / अत्तदोसोवसंहारे 21, सव्वकामविरत्तया 22 // 3 // पच्चक्खाणे 23-24, विउस्सग्गे 25, अप्पमादे 26, लवाववे 27 / झाणसंवरजोगे 28, य, उदए मारणंतिए 29 // 4 // संगाणं च परिण्णाया 30, पायच्छित्तकरणे वि य 31 / पाराहणा य मरणते 32, बत्तीसं जोगसंगहा // 5 // बत्तीस योग-संग्रह (मोक्ष-साधक मन, वचन, काय के प्रशस्त व्यापार) कहे गये हैं। इनके द्वारा मोक्ष की साधना सुचारु रूप से सम्पन्न होती है / वे योग इस प्रकार हैं-- 1. पालोचना - व्रत-शुद्धि के लिए शिष्य अपने दोषों की गुरु के आगे पालोचना करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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