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________________ सप्तपञ्चाशत्स्थानक समवाय] [119 295. समणे णं भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि पणवणं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणवणं अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / श्रमण भगवान् महावीर अन्तिम रात्रि में पुण्य-फल विपाकवाले पचपन और पाप-फल विपाकवाले पचपन अध्ययनों का प्रतिपादन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। 296. पढम-बिइयासु दोसु पुढवीसु पणवण्णं निरयावाससयसहस्सा पण्णता / पहिली और दूसरी इन दो पृथिवियों में पचपन (30+ 25= 55) लाख नारकावास कहे गये हैं। 297. दसणावरणिज्ज-नामाउयाणं तिण्हं कम्मपगडीणं पणवणं उत्तरपगडीओ पण्णत्तायो। दर्शनावरणीय, नाम और प्रायु इन तीन कर्मप्रकृतियों को मिलाकर पचपन उत्तर प्रकृतियां ( 9 42+4=55) कही गई हैं। ॥पञ्चपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त / / षट्पञ्चाशत्स्थानक-समवाय 298. जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पन्नं नक्खत्ता चंदेण सद्धि जोगं जोइंसु बा, जोइंति वा, जोइस्संति वा। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में दो चन्द्रमानों के परिवारवाले (28+28-56) छप्पन नक्षत्र चन्द्र के साथ योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे। 299. विमलस्स गं अरहयो छप्पन्नं गणा छप्पन्नं गणहरा होत्था / विमल अर्हत् के छप्पन गण और छप्पन गणधर थे। // षट्पञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त / / सप्तपञ्चाशत्स्थानक-समवाय 300. तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा--- आयारे सूयगडे ठाणे। प्राचारचलिका को छोड़ कर तीन गणिपिटकों के सत्तावन अध्ययन कहे गये हैं। जैसे आचाराङ्ग के अन्तिम निशीथ अध्ययन को छोड़ कर प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ, द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्राचारचूलिका को छोड़कर पन्द्रह, दूसरे सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह, द्वितीय श्रुतस्कन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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