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________________ 118] [समवायानसूत्र चतुःपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २९१--भरहेरवाएसु णं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए ओसप्पिणीए चउवन्नं चउवन्न उत्तमपुरिसा उप्पंजिसु वा, उप्पज्जति वा, उप्पज्जिसंति वा / तं जहा-चउवीसं तित्थकरा, बारस चक्कवट्टी, नव बलदेवा, नव वासुदेवा / भरत और ऐरवत क्षेत्रों में एक एक उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल में चौपन चौपन उत्तम पुरुष उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। जैसे–चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव / (24+12+9+9= 54) / २९२-अरहा गं अरिटुनेमी चउधन्न राइंदियाई छउमत्थपरियायं पाउणित्ता जिणे जाए केवली सवन्न सव्वभावदरिसी। समणे णं भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसिज्जाए चाउप्पन्नाई वागरणाई वागरित्था / अणंतस्स णं अरहओ चउपन्नं [गणा चउपन्नं] गणहरा होत्था / अरिष्टनेमि ग्रहन चौपन रात-दिन छद्मस्थ श्रमणपर्याय पाल कर केबली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी जिन हुए। श्रमण भगवान् महावीर को एक दिन में एक प्रासन से बैठे हुए चौपन प्रश्नों के उत्तररूप व्याख्यान दिये थे। अनन्त अर्हन के चौपन गण और चौपन गणधर थे। // चतुःपञ्चात्स्थानक समवाय समाप्त / / पञ्चपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २९३-मल्लिस्स णं अरहओ [मल्ली णं अरहा] पणवणं वाससहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खपहीणे। मल्ली अर्हन् पचपन हजार वर्ष की परमायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। २९४---मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लानो चरमंताओ विजयदारस पच्चथिमिल्ले चरमंते एस णं पणवण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चाउद्दिसि पि विजय-वेजयंतजयंत-अपराजियं ति। मन्दर पर्वत के पश्चिम चरमान्त भाग से पूर्वी विजयद्वार के पश्चिमी चरमान्त भाग का अन्तर पचपन हजार योजन का कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित द्वारों का अन्तर जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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