________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक ] [ 197 ५७२-इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा प्राणाए आराहिता चाउरंतसंसारकतारं वोईवइंसु / एवं पडुप्पण्णेऽवि [परित्ता जोधा प्राणाए पाराहित्ता चाउरतसंसारकतारं वोईवंति] एवं अणागए वि [अणंता जीवा प्राणाए प्रारहित्ता चाउरंतसंसारकतारं वीईवइस्संति] / __ इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप प्राज्ञा का पाराधन करके अनन्त जोवों ने भूतकाल में चतुर्गति रूप संसार-कान्तार को पार किया है (मुक्ति को प्राप्त किया है)। वर्तमान काल में भी (परिमित) जीव इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप प्राज्ञा का पाराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार कर रहे हैं और भविष्यकाल में भी अनन्त जीव इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप प्राज्ञा का पाराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार करेंगे। 573-- दुवालसंगे गं गणिपिडगे ण कयाइ णासी, ण कयावि णस्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ / भुवि च, भवति य, भविस्सति य। धुवे नितिए सासए अक्खए अब्बए अवट्ठिए णिच्चे / से जहा णामए पंच अस्थिकाया ण कयाइ ण प्रासि, ण कयाइ पत्थि, णकयाइण भविस्स भविंच, भवति य, भविस्संति य, धुवा णितिया सासया अक्खया अन्वया अवट्ठिया णिच्चा / एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ / भुवि च, भवति य, भविस्सइ य। धुवे जाव अवट्ठिए णिच्चे / यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक भूतकाल में कभी नहीं था. ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा, भी नहीं है। किन्तु भूतकाल में भी यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक था, वर्तमान काल में भी है और भविष्यकाल में भी रहेगा। क्योंकि यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना देने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है, गंगा-सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीपादि के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है / जिस प्रकार पाँच अस्ति काय द्रव्य भूतकाल में कभी नहीं थे ऐसा नहीं, वर्तमान काल में कभी नहीं हैं, ऐसा भी नहीं है और भविष्य काल में कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है। किन्तु ये पाँचों अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में भो थे, वर्तमानकाल में भी हैं और भविष्यकाल में भी रहेंगे। अतएव ये ध्रव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं. अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, और नित्य हैं। इसी प्रकार यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक भूतकाल में कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है। किन्तु भूतकाल में भी यह था, वर्तमान काल में भी यह है और भविष्य काल में भी रहेगा। अतएव यह ध्र व है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। 574 - एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अणंता अभावा, अणता हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, प्रणंता अकारणा अणंता जीवा, अणंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, प्रणता अभवसिद्धिया, अजंता सिद्धा, अणंता असिद्धा अघाविज्जति पणविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / एवं दुवालसंगं गणिपिडगं ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org