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________________ 198 ] [ समवायाङ्गसूत्र इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक में अनन्त भाव (जीवादि स्वरूप से सत् पदार्थ) और अनन्त अभाव (पररूप से असत् जीवादि वही पदार्थ) अनन्त हेतु, उनके प्रतिपक्षी अनन्त अहेतु; इसी प्रकार अनन्त कारण, अनन्त अकारण; अनन्त जीव, अनन्त अजोव; अनन्त भव्य सिद्धिक, अनन्त अभव्यसिद्धिक ; अनन्त सिद्ध तथा अनन्त प्रसिद्ध कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपति किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। विवेचन-जैन सिद्धान्त में प्रत्येक वस्तु में जिस प्रकार अनन्त धर्म स्वरूप को अपेक्षा सत्तारूप में पाये जाते हैं, उसी प्रकार पररूप की अपेक्षा अनन्त अभावात्मक धर्म भी पाये जाते हैं। इसी कारण सूत्र में स्वरूप की अपेक्षा भावात्मक धर्मों का और पररूप की अपेक्षा प्रभावात्मक धर्मों का निरूपण किया गया है। पदार्थ के धर्म-विशेषों को सिद्ध करने वाली युक्तियों को हेतु कहते हैं / पदार्थों के उपादान और निमित्त कारणों को कारण कहते हैं। जिनमें चेतना पाई जाती है, वे जीव और जिनमें चेतना नहीं पाई जाती है, वे अजीव कहलाते हैं। जिनमें मुक्ति जाने की योग्यता है वे भव्यसिद्धिक और जिनमें वह योग्यता नहीं पाई जाती उन्हें भव्य सिद्धिक कहते हैं। कर्म-मुक्त जोवों को सिद्ध और कर्म-बद्ध संसारी जीवों को प्रसिद्ध कहते हैं। इस प्रकार से यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक संसार में विद्यमान सभी तत्त्वों, भावों और पदार्थों का वर्णन करता है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग गणि-पिटक का वर्णन समाप्त हुआ / उपसंहार-द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान का विषय बहुत विशाल है। श्रुतज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए प्राचार्यों ने 'भेदः साक्षादसाक्षाच्च श्रुत-केवलयोर्मतः' कह कर श्रुतज्ञान की महत्ता प्रकट की है, अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष का भेद कहा है। जहाँ केवलज्ञान त्रैलोक्यत्रिकालवर्ती, द्रव्यों, उनके गुणों और पर्यायों को साक्षात् हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है, वहां श्रुतज्ञान उन सबको परोक्ष रूप से जानता है। अतः संसार का कोई भी तत्व द्वादशाङ्ग श्रुत से बाहर नहीं है / सभी तत्त्व इस द्वादशाङ्ग गणपिटक में समाहित हैं। प्राचाराङ्ग आदि ग्यारह अंगों में आचार आदि प्रधान रूप से एक-एक विषय का वर्णन किया गया है, किन्तु बारहवें दृष्टिवाद अंग में तो संसार के सभी तत्त्वों का वर्णन किया गया है। उसके पूर्वगत भेद में से जहाँ प्रारम्भ के उत्पादपूर्व आदि अनेक पूर्व वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वरूप का वर्णन करते हैं, वहाँ वीर्य प्रवादपूर्व द्रव्य की शक्तियों का, अस्तिनास्ति-प्रवाद पूर्व अनेक धर्मात्मकता का, ज्ञानप्रवाद और प्रात्मप्रवाद पूर्व प्रात्मस्वरूप का, कर्मप्रवाद पूर्व कर्मों की दशानों का निरूपण करते हैं / प्रत्याख्यानपूर्व अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों का, विद्यानुवाद पूर्व मंत्र-तंत्रों का, प्राणावाय पूर्व आयुर्वेद के अष्टाङ्गों का, अन्तरिक्ष, भौम, अंग स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और छिन्न इन पाठ महानिमित्तों का एवं ज्योतिषशास्त्र के रहस्यों का वर्णन करता है। अबन्ध्य पूर्व कभी निष्फल नहीं जाने वाली कल्याणकारिणी क्रियाओं का वर्णन करता है। क्रियाविशालपूर्व क्रियाओं का, स्त्रियों की चौसठ और पुरुषों की बहत्तर कलात्रों का, तथा काव्य-रचना, छन्द, अलंकार आदि का वर्णन करता है / लोकबिन्दुसार पूर्व अवशिष्ट सर्वश्रुत सम्पदा का वर्णन करता है। इस प्रकार ऐसा कोई भी जीवनोपयोगी एवं प्रात्मोपयोगी विषय नहीं है, जिसका वर्णन इन चौदह पूर्वो में न किया गया हो / कथानुयोग, गणित आदि विषयों का वर्णन दृष्टिवाद के शेष चार भेदों में किया गया है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग श्रुत का विषय बहुत विशाल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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