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________________ 196] [समवायानसूत्र भूमि आदि में प्रवेश करने आदि के मन्त्र-तन्त्रादि का वर्णन है। मायागता में इन्द्रजाल-सम्बन्धी मन्त्रादि का वर्णन है। आकाशगता में आकाश-गमन के कारणभूत मन्त्रादि का वर्णन है / रूपगता में सिंह आदि के अनेक प्रकार रूपादि बनाने के कारणभूत मन्त्रादि का वर्णन है / ५६९-दिदिवायस्स णं परिता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ संगहणीयो। दृष्टिवाद की परीत वाचनाएँ हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं। संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं, संख्यात श्लोक हैं, और संख्यात संग्रहणियां हैं। ५७०–से गं अंगट्ठयाए बारसमे अंगे, एगे सुमक्खंधे, चउद्दस पुव्वाइं संखेज्जा वत्थू, संखेज्जा चूलवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुड-पाहुडा, संखेज्जाओ पाहुडियाओ, संखेज्जानो पाहुडपाहुडियानो, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ताई / संखेज्जा अवखरा, अणंता गमा, प्रणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्राधविज्जति पण्णविज्जति पविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जंति / से तं दिट्टिवाएं / से तं दुवालसंगे गणिपिडगे। यह दृष्टिवाद अंगरूप से बारहवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, चौदह पूर्व हैं, संख्यात वस्तु हैं, संख्यात चूलिका वस्तु हैं, संख्यात प्राभृत हैं, संख्यात प्राभूत-प्राभृत हैं, संख्यात प्राभतिकाएं हैं, संख्यात प्राभृत-प्राभृति काएं हैं। पद गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। संख्यात अक्षर हैं / अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं / ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस दृष्टिवाद में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तुस्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है / यह बारहवाँ दृष्टिवाद अंग है। यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक का वर्णन है 12 / ५७१-इच्चेइयं दुबालसंग गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा प्राणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरिट्टिसु / इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवा प्राणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियति / इच्चेइयं दुबालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं अशुपरियट्टरसंति। इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र रूप, अर्थरूप और उभय रूप प्राज्ञा का विराधन करके अर्थात दुराग्रह के वशीभूत होकर अन्यथा सुत्रपाठ करके, अन्यथा अर्थकथन करके सूत्रार्थ उभय की प्ररूपणा करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुतिरूप संसार-कान्तार (गहन वन) में परिभ्रमण किया है, इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप आज्ञा का विराधन करके वर्तमान काल में परीत (परिमित) जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार में परिभ्रमण कर रहे हैं और इसी द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का विराधन कर भविष्यकाल में अनन्त जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार में परिभ्रमण करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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