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________________ चतुर्थ समवाय : विश्लेषण चतुर्थ स्थानक समवाय में चार कषाय, चार ध्यान, चार विकथाएं, चार संज्ञाएं, चार प्रकार के बन्ध, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा के तारों, नारकीय व देवों की चार पस्योपम व सागरोपम स्थिति का उल्लेख करते हुए कितने ही जीवों के चार भव कर मोक्ष जाने का वर्णन है / प्रात्मा के परिणामों को जो कलुषित करता है, वह कषाय है। कषाय से आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप नष्ट होता है / कषाय प्रात्मधन को लटने वाले तस्कर हैं। वे प्रात्मा में छिपे हुए दोष हैं / क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय के चार प्रकार हैं। इन्हें चण्डाल चौकड़ी कहा जाता है / कषाय से मुक्त होना ही सच्ची मुक्ति है। 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव / ' कषाय के अनेक भेद-प्रभेद हैं। कषाय कर्मजनित और साथ ही कर्मजनक वकारिक प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति का परित्याग कर प्रात्मस्वरूप में रमण करना, यह साधक का लक्ष्य होना चाहिए / कषाय के पश्चात् चार ध्यान का उल्लेख है। ध्यान का अर्थ है-चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना। 30 चित्त को किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करना अत्यन्त कठिन है। वह अन्तमुहर्त से अधिक एकाग्र नहीं रह सकता। प्राचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है-जब साधक ध्यान में तन्मय हो जाता है तब उस में Qतज्ञान नहीं रहता। वह समस्त राग-द्वेष से ऊपर उठकर आत्मा स्व-रूप में ही निमग्न हो जाता है। 32 उसे तत्वानुशासन 33 में समरसी भाव, और ज्ञानार्णव में सयोर्य ध्यान कहा है। ध्यान के लिए मुख्य रूप से तीन बातें अपेक्षित हैंध्याता, ध्येय और ध्यान / ध्यान करने वाला ध्याता है। जिसका ध्यान किया जाता है, वह-ध्येय है और ध्याता का ध्येय में स्थिर हो जाना "ध्यान" है / 35 ध्यान-साधना के लिए परिग्रह का त्याग, कषायों का निग्रह, व्रतों का धारण और इन्द्रिय-विजय करना आवश्यक है / स्थानांग, भगवती 7, आवश्यकनियुक्ति३८, आदि में समवायांग की तरह ही आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार भेद प्रतिपादित किये गये हैं / इनमें प्रारम्भ के दो ध्यान अप्रशस्त हैं, और अन्तिम दो प्रशस्त हैं / योगग्रन्थों में अन्य दृष्टियों से ध्यान के भेद-प्रभेदों की चर्चा है / पर हम यहाँ उन भेद-प्रभेदों की चर्चा न कर आग ध्यानों पर ही संक्षेप में चिन्तन करेंगे। आर्ति नाम दुःख या पीड़ा का है उसमें से जो उत्पन्न हो वह प्रात 30. क-प्रावश्यक नियुक्ति 1459 ख-ध्यानशतक-२ ग-नव पदार्थ-पृ० 668 31. के-ध्यानशतक-३, ख-तत्त्वार्थसूत्र 9/28 ग-योगप्रदीप 15/33 32. योगप्रदीप 138 33. तत्त्वानुशासन 60-61 34. ज्ञानार्णव, अध्याय 28 35. योगशास्त्र 7/1 35. तत्त्वानुशासन 67 36. स्थानांग 4/247 37. भगवती श. 25 उद्दे. 7 38. प्रावश्यकनियुक्ति, 1458 [ 27 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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