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________________ है अर्थात् दुःख के निमित्त से या दुःख में होने वाला ध्यान प्रात्तध्यान है / यह ध्यान मनोज्ञ बस्तु के वियोग और अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होता है। राग भाव से मन में एक उन्मत्तता उत्पन्न होती है / फलतः अवांछनीय बस्तु की उपलब्धि और वांछनीय की अनुपलब्धि होने पर जीव दुःखी होता है। अनिष्ट संयोग, इष्टवियोग, रोग चिन्ता, या रोगार्त और भोगात ये चार प्रार्तध्यान के भेद हैं। इस ध्यान से जीव तिर्यञ्च गति को प्राप्त होता है / ऐसे ध्यानी का मन आत्मा से हटकर सांसारिक वस्तुओं में केन्द्रित होता है। रौद्रध्यान वह है जिसमें जीव स्वभाव से सभी प्रकार के पापाचार करने में समुद्यत होता है। क्रूर अथवा कठोर भाववाले प्राणी को रुद्र कहते हैं / वह निर्दयी बनकर ऋर कार्यों का कर्ता बनता है। इसलिए उसे रौद्र ध्यान कहा है। इस ध्यान में हिंसा, झठ चोरी, धन रक्षा व छेदन-भेदन प्रादि दुष्ट प्रवृत्तियों का चिन्तन होता है। इस ध्यान के हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द, संरक्षानन्द, ये चार प्रकार हैं।४१ इसलिए इन दोनों ध्यानों को हेय और अशुभ माना गया है। धर्मध्यान-आत्मविकास का प्रथम चरण है। इस ध्यान में साधक आत्मचिन्तन में प्रवृत्त होता है। ज्ञानसार२ में बताया गया है कि शास्त्रवाक्यों के अर्थ, धर्ममार्गणाएँ, व्रत, गुप्ति, समिति, प्रादि की भावनाओं का--चिन्तन करना धर्मध्यान है। इस ध्यान के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य 3 अपेक्षित हैं / इनसे सहज रूप से मन स्थिर हो जाता है। प्राचार्य शुभचन्द्र ने धर्मध्यान की सिद्धि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं के चिन्तन पर भी बल दिया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण'५ ने स्पष्ट किया है कि धर्मध्यान का सम्यग् अाराधन एकान्त-शान्त स्थान में हो सकता है / ध्यान का प्रासन सुखकारक हो, जिससे ध्यान की मर्यादा स्थिर रह सके / यह ध्यान पद्मासन से बैठकर, खड़े होकर या लेट कर भी किया जा सकता है / मानसिक चंचलता के कारण कभी-कभी साधक का मन ध्यान में स्थिर नहीं होता / इसलिए शास्त्र में धर्मध्यान के चार आलम्बन बताये हैं।४ (1) आज्ञा विचय-सर्वज्ञ के वचनों में किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं है। इसलिए प्राप्त वचनों का पालम्बन लेना। यहाँ "विचय" शब्द का अर्थ "चिन्तन" है। (2) अपायविचय-कर्म नष्ट करने के लिए और आत्म तत्त्व की उपलब्धि के लिए चिन्तन करना / (3) विपाकविचय-कर्मों के शुभ-अशुभ फल के सम्बन्ध में चिन्तन करना अथवा कर्म के प्रभाव से प्रतिक्षण उदित होने वाली प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में विचार करना / (4) संस्थानविचय-यह जगत् उत्पाद और ध्रौव्य युक्त है। द्रव्य की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से उसमें उत्पाद और व्यय होता है। संसार के नित्यअनित्य स्वरूप का चिन्तन होने से वैराग्य भावना सुदढ़ होती है, जिससे साधकः प्रात्म-स्वरूप का अनुभव 39. स्थानांग 4/247 40. क-स्थानांग 4/247 ख-आवश्यक अध्ययन-४ 41. क--तत्त्वार्थ सूत्र 9/36 ख–ज्ञानार्णव 24/3 42. ज्ञानसार, 16 43. ध्यानशतक 30-34 44. चतस्रो भावना धन्याः, पुराणपुरुषाश्रिताः / मैन्यादयश्चिरं चिते विधेया धर्मसिद्धये // ज्ञानार्णव 25/4 45. ध्यानशतक, श्लोक 38, 39 46. क--स्थानाङ्ग, ख--योगशास्त्र 10/7, ग-ज्ञानार्णव 30/5, घ---तत्त्वानुशासन 9/8 47. योगशास्त्र 10-8,9; ख-ज्ञानार्णव-३८ [2] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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