SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतस्थानक समवाय ] [159 दूसरे मंडल पर परिभ्रमण करता है, तब उसकी लम्बाई निन्यानवै हजार छह सौ पैंतालीस योजन और एक योजन इकसठ भागों में से पैतीस भाग-प्रमाण (9964531) होती है। प्रथम मंडल से इस दूसरे मंडल की पाँच योजन और पैतीस भाग इकसठ वृद्धि का कारण यह है कि एक मंडल से दूसरे मंडल का अन्तर दो-दो योजन का है / तथा सूर्य के विमान का विष्कम्भ एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग-प्रमाण है। इसे (24) दुगुना कर देने पर (266x2=531) पाँच योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से पैंतीस भाग-प्रमाण वृद्धि प्रथम मंडल से दूसरे मंडल की सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार दूसरे मंडल के विष्कम्भ में 535 के मिला देने पर (9964515 53 -- 996516) निन्यानवै हजार छह सौ इकावन योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से नौ भाग-प्रमाण विष्कम्भ तीसरे मंडल का निकल पाता है। निन्यानवै हजार में ऊपर जो प्रथम मंडल में 640 योजन की, दूसरे मंडल में 64535 योजन की और तीसरे मंडल में 6516 योजन की वृद्धि होती है, उसे सूत्र में 'सातिरेक' और 'साधिक' पद से सूचित किया गया है, जिसका अर्थ निन्यानवै हजार योजन से कुछ अधिक होता है। 446- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेछिल्लाओ चरमंतानो वाणमंतरभोमेज्जविहाराणं उरिमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। इस रत्नप्रभा पृथिवी के अंजन कांड के अधस्तन चरमान्त भाग से वान-व्यन्तर भौमेयक देवों के विहारों (आवासों) का उपरिम अन्तभाग निन्यानवै सौ (9900) योजन अन्तरवाला कहा गया है। विवेचन–रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम खरकाण्ड के सोलह कांडों में अंजनकांड दशवां है। उसका अधस्तन भाग यहां से दश हजार योजन दूर है। प्रथम रत्न-कांड के प्रथम सौ योजनों के (बाद) व्यन्तर देवों के नगर हैं / इन सौ को दश हजार में से (10,000-100 = 9900) घटा देने पर सूत्रोक्त निन्यानवे सौ (9900) योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। // नवनवतिस्थानक समवाय समाप्त // शतस्थानक-समवाय ४४७–दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछोहि भिक्खासतेहि अहासुत्तं जाव प्राराहिया यावि भवइ / दशदशमिका भिक्षुप्रतिभा एक सौ रात-दिनों में और साढ़े पांच सौ भिक्षा-दत्तियों से यथासूत्र, यथामार्ग, यथातत्व से स्पृष्ट, पालित, शोभित, तीरित, कीर्तित और पाराधित होती है। विवेचन----इस भिक्षप्रतिमा की आराधना दश दश दिन के दिनदशक अर्थात् सौ दिनों के द्वारा की जाती है। पूर्व वर्णित भिक्षुप्रतिमाओं के समान इसमें भी प्रथम दश दिनों से लेकर दशवें दिनदशक तक प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति अधिक ग्रहण की जाती है / तदनुसार सर्वभिक्षादत्तियों की संख्या (10-203040 / -50+60-70.80+90-100-550) पाँचसौ पचास हो जाती है / शेष आराधना-विधि पूर्व प्रतिमाओं के समान ही जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy