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________________ 15] [समवायाङ्गसूत्र तीन तारावाला है / इन उन्नीसों नक्षत्रों के ताराओं को जोड़ने पर (32+3+3+6+5+3+ 1+5+3+6-7+2--2+5.1-1-1+5+4+3= 97) अन्य ग्रन्थों के अनुसार सत्तानवै संख्या ही होती है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र में उन्नीस नक्षत्रों के ताराओं की संख्या अट्टानवे (98) बताई गई है, अतः उक्त नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के ताराओं की संख्या एक अधिक होनी चाहिए। तभी सूत्रोक्त अट्ठानवै संख्या सिद्ध होगी, ऐसा टीकाकार का अभिप्राय है। // अष्टानवतिस्थानक समवाय समाप्त // नवनवतिस्थानक-समवाय ४४४-मंदरे गं पब्वए गवणउइ जोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते / नंदणवणस्स णं पुरच्छिमिल्लाप्रो चरमंतानो पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाइं प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ उत्तरिल्ले चरमते एस णं गवणउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। मन्दर पर्वत निन्यानवे हजार योजन ऊंचा कहा गया है। नन्दनवन के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त निन्यानवै सौ (9900) योजन अन्तरवाला कहा गया है। इसी प्रकार नन्दन वन के दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त निन्यानवै सौ (9900) योजन अन्तर वाला है। विवेचन-मेरु पर्वत भूतल पर दश हजार योजन विस्तारवाला है और पांच सौ योजन की ऊंचाई पर अवस्थित नन्दवन के स्थान पर नौ हजार नौ सौ चौपन योजन, तथा एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग-प्रमाण (995461) मेरु का बाह्य विस्तार है। और भीतरी विस्तार उन्यासी सौ चौपन योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग-प्रमाण है (795465) / पाँच सौ योजन नन्दनवन की चौड़ाई है / इस प्रकार मेरु का आभ्यन्तर विस्तार और दोनों ओर के नन्दनवन का पाँच पाँच सौ योजन का विस्तार ये सब मिलकर (79546 +500+500 = 895461) प्रायः सूत्रोक्त अन्तर हो जाता है। ४४५-उत्तरे पढमे सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साइं साइरेगाइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / दोच्चे सरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साई साहियाई आयामविक्खंभेणं पण्णते। तइयसूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साई साहियाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / उत्तर दिशा में सूर्य का प्रथम मंडल अायाम-विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवै हजार योजन कहा गया है / दूसरा सूर्य-मंडल भी आयाम-विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन कहा गया है। तीसरा सूर्यमंडल भी पायाम-विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन कहा गया है। विवेचन-सूर्य जिस आकाश-मार्ग से मेरु के चारों ओर परिभ्रमण करता है उसे सूर्य-मंडल कहते हैं / जब वह उत्तर दिशा के सबसे पहिले मंडल पर परिभ्रमण करता है, तब उस मंडल की गोलाकार रूप में लम्बाई निन्यानवे हजार छह सौ चालीस योजन (99640) होती है / जब सूर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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