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________________ कल्प में बत्तीस लाख विमान, रेवती नक्षत्र के बत्तीस तारे, बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि, तथा नारकों व देवों की बत्तीस सागरोपम व पल्योपम की स्थिति का वर्णन है। ___मन, वचन और काया का व्यापार योग कहलाता है। यहां पर बत्तीस योगसंग्रह में मन, वचन और काया के प्रशस्त व्यापार को लिया गया है। आवश्यक बृहद्वत्ति में इस विषय पर चिन्तन किया गया है। तेतीसवें समवाय में तेतीस आशातनाएँ, असुरेन्द्र की राजधानी में तेतीस मंजिल के विशिष्ट भवन तथा नारकों व देवों की तेतीस सागरोपम व पल्योपम की स्थिति का वर्णन है।। यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा Pi जिन देवों की जितनी सागरोपम की स्थिति बतलायी गयी है, वे उतने ही पक्षों में उच्छ्वास और नि:श्वास लेते हैं। और उतने ही हजार वर्ष के बाद उन्हें आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है। प्रस्तुत समवाय में लघुश्रमणों का ज्येष्ठश्रमणों के साथ किस प्रकार का विनयपूर्वक व्यवहार रहना चाहिये, आशातना आदि से निरन्तर बचना चाहिये / जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास होता है वह आशातना-अवज्ञा है। तेतीस आशातनाओं का निरूपण दशाश्रुतस्कन्ध२१८ में विस्तार से पाया है। चौतीसवें समवाय में तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय, चक्रवर्ती के चौतीस विजयक्षेत्र, जम्बूद्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्य, जम्बूद्वीप में उत्कृष्ट चौतीस तीर्थंकर उत्पन्न हो सकते हैं, तथा प्रसुरेन्द्र के चौतीस लाख तथा पहली, पाँचवी, छठी और सातवीं नरक में चौतीस लाख नारकाबास कहे हैं। प्रस्तुत समवाय में अतिशयों का उल्लेख है। अतिशयों के सम्बन्ध में प्राचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र 216 और अभिधान चिन्तामणि 20 प्रादि ग्रन्थों में चिन्तन किया है। वह चिन्तन बहृद् वाचना के आधार पर है। यहां पर चौतीस अतिशयों में से दूसरे अतिशय से पांचवें अतिशय तक जन्मप्रत्ययक हैं। इक्कीस से लेकर चौतीस अतिशय व बारहवाँ अतिशय कर्म के क्षय से होता है। शेष अतिशय देवकृत हैं। दिगम्बर परम्परा भी चौतीस प्रतिशय मानती हैं। पर उन अतिशयों में कुछ भिन्नता है। वे दश जन्म प्रत्यय, चौदह देवकृत और दश केवलज्ञान कृत मानते हैं। यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि सभवायांग के टीकाकार आचार्य अभयदेव के मत से आहार निहार, ये आँख से अदृश्य होते हैं। ये जन्मकृत अतिशय हैं। जब कि दिगम्बर मतानुसार आहार का प्रभाव, यह अतिशय माना गया है और वह जन्मकृत नहीं केवलज्ञानकृत है। श्वेताम्बर दृष्टि से भगवान् अर्धमागधी में उपदेश प्रदान करते हैं और वह उपदेश सभी जीवों की भाषा के रूप में परिणत होता है। ये दो अतिशय कर्मक्षयकृत माने गये हैं। आचार्य अभयदेव और आचार्य हेमचन्द्र के अतिशयवर्णन में विभाजन पद्धति में कुछ अन्तर है। पर भाषा के सम्बन्ध में अभयदेव व हेमचन्द्र दोनों का एक ही मत है। आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि से उन्नीस अतिशय देवकृत हैं जब कि अभयदेव की दृष्टि से पन्द्रह अतिशय देवकृत हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि भगवान का चारों 217. आवश्यक बृहद् वृत्ति--- 4, मा 73 से 77 218. दशाश्रुतस्कन्ध-३ दशा (ख) तत्र प्रायः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना खण्डना निरुक्ता आशातना। 219. योगशास्त्र पृ. 130 220. अभिधानचिन्तामणि 56-63 / (ख) स्थानाङ्ग समवायांग-पं. दलसूख मालवणिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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