________________ एकत्रिंशत्स्थानक समवाय] [91 २०१-पासे णं अरहा तीसं वासाइं अगारवासमक्ष वसित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए। समणे णं भगवं महावीरे तीसं बासाइं अमारवासमझे वसित्ता अगाराओ प्रणगारियं पव्बइए। पार्श्व अर्हन् तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। श्रमण भगवान् महावीर तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रवजित २०२–रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं निरयावासयसहस्सा पण्णता / इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्थेगडयाणं तीस पलिम्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। रत्नप्रभा पृथिवी में तीस लाख नारकावास हैं। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति तीस पल्योपम कही गई है / अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीस पल्योपम कही गई है। २०३-उवरिमउवरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णणं तीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा उरिममज्झिमगेवेज्जएसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा। तेसि णं देवाणं तीसाए वाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / ___संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / उपरिम-उपरिम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम कही गई है / जो देव उपरिममध्यम वेयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम कही गई है / वे देव तीस अर्धमासों (पन्द्रह मासों) के बाद प्रान-प्राण और उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के तीस हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // त्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // एकत्रिंशत्स्थानक-समवाय २०५–एकत्तीस सिद्धाइगुणा पण्णत्ता / तं जहा–खोणे आभिनिबोहियणाणावरणे 1, खीणे सुयणाणावरणे 2, खीणे ओहिणाणावरणे 3, खीणे मणपज्जवणाणावरणे 4, खीणे केवलणाणावरणे 5, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org