________________ 90] [समवायाङ्गसूत्र (28) जो मनुष्य-सम्बन्धी अथवा पारलौकिक देवभव सम्बन्धी भोगों में तृप्त नहीं होता हुमा वार-वार उनकी अभिलाषा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 32 / / यह अट्ठाईसवां मोहनीय स्थान है / (29) जो अज्ञानी देवों की ऋद्धि (विमानादि सम्पत्ति), द्युति (शरीर और आभूषणों की कान्ति), यश और वर्ण (शोभा) का, तथा उनके बल-वीर्य का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 33 / / यह उनतीसवाँ मोहनीय स्थान है। (30) जो देवों, यक्षों और गुह्यकों (व्यन्तरों) को नहीं देखता हुआ भी 'मैं उनको देखता हूँ ऐसा कहता है, वह जिनदेव के समान अपनी पूजा का अभिलाषी अज्ञानी पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 34 / / यह तीसवाँ मोहनीय स्थान है। १९७-थेरे णं मंडियपुत्ते तीसं वासाई सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सम्वदुक्खप्पहोणे। _ स्थविर मंडितपुत्र तीस वर्ष श्रमण-पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध हुए, यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। १९८-एगमेगे णं अहोरत्ते 'तीसमूहत्ते महत्तग्गेणं पण्णते। एएसि णं तीसाए महत्ताणं तीसं नामधेज्जा पण्णत्ता। तं जहा-रोहे सत्ते मित्ते वाऊ सुपीए 5, अभिचंदे माहिदे पलंबे बंभे सच्चे 10, आणंदे विजए विस्ससेणे पायावच्चे उसमे 15, ईसाणे तळे भाविअप्पा वेसमणे वरुणे 20, सतरिसभे गंधम्वे अग्गिवेसायणे प्रातवे पावत्ते 25, तटवे भूमहे रिसभे सव्वट्ठसिद्ध रक्खसे 30 / / एक-एक अहोरात्र (दिन-रात) मुहूर्त-गणना की अपेक्षा तीस मुहूर्त का कहा गया है / इन तीस मुहतों के तीस नाम हैं / जैसे- -1 रौद्र, 2 शक्त, 3 मित्र, 4 वायु, 5 सुपीत, 6 अभिचन्द्र, 7 माहेन्द्र, 8 प्रलम्ब, 9 ब्रह्म, 10 सत्य, 11 अानन्द, 12 विजय, 13 विश्वसेन, 14 प्राजापत्य, 15 उपशम, 16 ईशान, 17 तष्ट, 18 भावितात्मा, 19 वैश्रवण, 20 वरुण.२१ शतऋषभ.२२ ग वैशायन, 24 पातप, 25 पावर्त, 26 तष्टवान, 27 भूमह (महान), 28 ऋषभ 29 सर्वार्थसिद्ध और 30 राक्षस। विवेचन-इन मुहूर्तों की गणना सूर्योदय काल से लेकर क्रम से की जाती है। इनके मध्यवर्ती छह मुहूर्त कभी दिन में अन्तर्भूत होते हैं और कभी रात्रि में होते हैं / इसका कारण यह है कि जब ग्रीष्म ऋतु में अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब वे दिन में गिने जाते हैं और जब शीत काल में रात्रि अठारह मुहर्त की होती है, तब वे रात्रि में गिने जाते हैं। 199 --अरे णं परहा तीसं धण्इं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / अठारहवें अर अर्हन् तीस धनुष ऊंचे थे। 200 सहस्सारस्स णं देविदस्स देवरण्णो तीसं सामाणियसाहस्सोमो पण्णत्तायो। सहस्रार देवेन्द्र देवराज के तीस हजार सामानिक देव कहे गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org