________________ एकोनाशीतिस्थानक समवाय] [137 अष्टसप्ततिस्थानक-समवाय ३६९--सक्कस्स णं देविदस्स देवरन्नो वेसमणे महाराया अट्ठहत्तरीए सुवन्नकुमार-वीवकुमारावाससयसहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महारायत्तं प्राणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ। देवेन्द्र देवराज शक्र का वैश्रमण नामक चौथा लोकपाल सुपर्णकुमारों और द्वीपकुमारों के (38+40 =78) अठहत्तर लाख आवासों (भवनों) का आधिपत्य, अग्रस्वामित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषकत्व) महाराजत्व, सेनानायकत्व करता और उनका शासन एवं प्रतिपालन करता है। (भवनों से अभिप्राय उनमें रहने वाले देव-देवियों से भी है / वैश्रमण उन सब का लोकपाल है।) ३७०--थेरे णं अकंपिए अट्ठहरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / स्थविर अकम्पित अठहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए / ३७१--उत्तरायणनिय? गं सूरिए पढमाओ मंडलाओ एगूणचत्तालोसइमे मंडले अट्ठहरि एगसट्ठिभाए दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता णं चारं चरइ। एवं दक्खिणायणनियट्ट वि। उत्तरायण से लौटता हुआ सूर्य प्रथम मंडल से उनचालीसवें मण्डल तक एक मुहूर्त के इकसठिए अठहत्तर भाग प्रमाण दिन को कम करके और रजनी क्षेत्र (रात्रि) को बढ़ा कर संचार करता है। इसी प्रकार दक्षिणायन से लौटता हा भी रात्रि और दिन के प्रमाण को घटाता और बढ़ाता हुग्रा संचार करता है। ॥अष्टसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त / / एकोनाशीतिस्थानक-समवाय ३७२-वलयामुहस्स णं पायालस्स हिडिल्लाओ चरमंतानो इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं एगणासीइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं के उस्स वि, जयस्स वि, ईसरस्स वि। बड़वामुख नामक महापातालकलश के अधस्तन चरमान्त भाग से इस रत्नप्रभा पृथिवी का निचला चरमान्त भाग उन्यासी हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है / इसी प्रकार केतुक, यूपक और ईश्वर नामक महापातलों का अन्तर भी जानना चाहिए। विवेचन–रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसमें लवण समुद्र एक हजार योजन गहरा है / उस गहराई से एक लाख योजन गहरा बड़वामुख पाताल कलश है / उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org