________________ [समवायाङ्गसूत्र षट्सप्ततिस्थानक-समवाय ३६४–छावरि विज्जुकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता / एवं दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिद-णियमग्गोणं, छण्हं पि जुगलयाणं छावरि सयसहस्साई। विद्युत्कुमार देवों के छिहत्तर लाख प्रावास (भवन) कहे गये हैं। इसी प्रकार द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, और अग्निकुमार, इन दक्षिण-उत्तर दोनों युगलवाले छहों देवों के भी छिहत्तर लाख आवास (भवन) कहे गये हैं। // षट्सप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // सप्तसप्ततिस्थानक-समवाय ३६५--भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तहरि पुव्वसयसहस्साई कुमारावासमझे वसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते / चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा सतहत्तर लाख पूर्व कोटि वर्ष कुमार अवस्था में रह कर महाराजपद को प्राप्त हुए-राजा हुए। ३६६-अंगवंसाओ णं सत्तहत्तरि रायाणो मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया। अंगवंश की परम्परा में उत्पन्न हुए सतहत्तर राजा मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। ३६७-गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्तहरि देवसहस्सपरिवारा पण्णत्ता। गर्दतोय और तुषित लोकान्तिक देवों का परिवार सतहत्तर हजार (77000) देवोंवाला कहा गया है। ३६८--एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तहरि लवे लवग्गेणं पण्णत्ते / प्रत्येक मुहूर्त में लवों की गणना से सतहत्तर लव कहे गये हैं। विवेचन-काल के मान-विशेष को लव कहते हैं। एक हृष्ट-पुष्ट नीरोग और संक्लेश-रहित मनुष्य के एक बार श्वास-उच्छ्वास लेने को एक प्राण कहते हैं / सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोकों का एक लव होता है और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है / इस प्रकार एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तेहत्तर(७४ 74 77 - 3773) श्वासोच्छ्वास या प्राण होते हैं / // सप्तसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org