________________ 138] [समवायाङ्गसूत्र अन्तिम भाग से रत्नप्रभा पृथिवी का अन्तिम भाग उन्यासी हजार योजन है / क्योंकि रत्नप्रभा पृथिव की एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई में से एक लाख एक हजार योजन घटाने पर (180000101000 = 79000) उन्यासी हजार योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार शेष तीनों पाताल कलशा का भाअन्तर उनके अधस्तन अन्तिम भाग से रत्नप्रभा प्रथिवी के अधस्तन अन्तिम भाग का उन्यासी-उन्यासी हजार योजन जानना चाहिए। __३७३--छट्ठीए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छट्ठस्स घणोदहिस्स हेद्विस्ले चरमंते एस गं एगणासीति जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / छठी पृथिवी के बहुमध्यदेशभाग से छठे धनोदधिवात का अधस्तल चरमान्त भाग उन्यासी हजार योजन के अन्तर-व्यवधान वाला कहा गया है। विवेचन-छठी तमःप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन है। उसके नीचे घनोदधिवात को यदि इस ग्रन्थ के मत से इक्कीस हजार योजन मोटा माना जावे तो उक्त पृथिवी की मध्यभाग रूप आधी मोटाई अठावन हजार और घनोदधिवात की मोटाई इक्कीस हजार इन दोनों को जोड़ने पर (58000+21000 = 79000) उन्यासी हजार योजन का अन्तर सिद्ध होता है। परन्तु अन्य ग्रन्थों के मत से सभी पृथिवियों के नीचे के घनोदधिवात की मोटाई बीस-बीस हजार योजन ही कही गई है, अतः उनके अनुसार उक्त अन्तर पाँचवी पृथिवी के मध्यभाग से वहाँ के घनोदधिवात के अन्त तक का जानना चाहिए / क्योंकि पाँचवी पृथिवी एक लाख अठारह हजार योजन मोटी है। उसका मध्यभाग उनसठ हजार और घनोदधि की मोटाई बीस हजार ये दोनों मिल कर उन्यासी हजार योजन हो जाते हैं / संस्कृतटीकाकार ने यह भी संभावना व्यक्त की है कि 'बहु' शब्द से एक हजार अधिक अर्थात् उनसठ हजार योजन प्रमाण मध्यभाग लेना चाहिए। ३७४-जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स वारस्स य वारस्स य एस णं एगणासीइं जोयणसहस्साई साइरेणाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ___जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कुछ अधिक उन्यासी हजार योजन कहा गया है। विवेचन--जम्बूद्वीप की पूर्व आदि चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं / जम्बूद्वीप की परिधि 316227 योजन 3 कोश 128 धनुष और 133 अंगुल प्रमाण है / प्रत्येक द्वार की चौड़ाई चार-चार योजन है / चारों की चौड़ाई सोलह योजनों को उक्त परिधि के प्रमाण में से घटा देने और शेष में चार का भाग देने पर एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कुछ अधिक उन्यासी हजार योजन सिद्ध हो जाता है। // एकोनाशीतिस्थानक समवाय समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org