________________ द्विनवतिस्थानक समवाय] [151 इस प्रकार शुश्रूषा विनय के 10 भेद, तीर्थकरादि के अनाशातनादि 60 भेद, औपचारिक विनय के 7 भेद और प्राचार्य आदि के वैयावृत्य के 14 भेद मिलाने पर (10+60+7+14 = 91) इक्यानवें भेद हो जाते हैं। ४१९–कालोए णं समुद्दे एकाणउई जोयणसयसहस्साई साहियाइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते / कालोद समुद्र परिक्षेप (परिधि) की अपेक्षा कुछ अधिक इक्यानवे लाख योजन कहा गया है / विवेचन -जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तृत है, लवण समुद्र दो लाख योजन विस्तृत है, धातकीखण्ड चार लाख योजन विस्तृत है और उसे सर्व ओर से घेरने वाला कालोद समुद्र पाठ योजन विस्तृत है। इन सबकी विष्कम्भ सूची 29 लाख योजन होती है। इतनी विष्कम्भ सूची वाले कालोद समुद्र की सूक्ष्म परिधि करणसूत्र के अनुसार 9177605 योजन, 715 धनुष और कुछ अधिक 87 अंगुल सिद्ध होती है। उसे स्थूल रूप से सूत्र में कुछ अधिक इक्यानवे लाख योजन कहा गया है। 420 - कुथुस्स णं अरहो एकाणइई आहोहियसया होत्था / कुन्थु अर्हत् के संघ में इक्कानवै सौ (9100) नियत क्षेत्र को विषय करने वाले अवधिज्ञानी थे। ४२१--आउय-गोयवज्जाणं छण्हं कम्मपगडीणं एकाणउई उत्तरपडीओ पण्णतायो। आयु और गोत्र कर्म को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ (5-+-9--2+ 28+-42+5= 91) इक्यानवै कही गई हैं। // एकनवतिस्थानक समवाय समाप्त // द्विनवतिस्थानक-समवाय ४२२--बाणउई पडिमाओ पण्णत्ताओ। प्रतिमाएं वानवै कही गई हैं। विवेचन- मूलसूत्र में इन प्रतिमाओं के नाम-निर्देश नहीं हैं, अत: दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति के अनुसार उनका कुछ विवरण किया जाता है--मूल में प्रतिमाएं पाँच कही गई है--समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनताप्रतिमा और एकाकी विहारप्रतिमा / इनमें समाधिप्रतिमा दो प्रकार की है --श्रुतसमाधिप्रतिमा और चारित्रसमाधिप्रतिमा। दर्शनप्रतिमा को भिन्न नहीं कहा, क्योंकि उसका ज्ञान में अन्तर्भाव हो जाता है। श्रतसमाधिप्रतिमा के बासठ भेद हैं-प्राचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध-गत पाँच, द्वितीय श्रुतस्कन्धगत सैतीस, स्थानाङ्गसूत्र-गत सोलह और व्यवहारसूत्रगत चार / ये सब मिलकर (5+ 37+16+4= 62) वासठ हैं / यद्यपि ये सभी प्रतिमाएं चारित्रस्वरूपात्मक हैं, तथापि ये विशिष्ट श्रुतशालियों के ही होती हैं, अतः श्रुत की प्रधानता से इन्हें श्रुत समाधिप्रतिमा के रूप में कहा ITE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org