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________________ 152] [समवायाङ्गसूत्र सामायिक, छेदीपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र की अपेक्षा चारित्रसमाधिप्रतिमा के पाँच भेद हैं। उपधानप्रतिमा के दो भेद हैं-भिक्षुप्रतिमा और उपासकप्रतिमा / इनमें भिक्षुप्रतिमा के मासिकी भिक्षुप्रतिमा आदि बारह भेद हैं और उपासकप्रतिमा के दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा अादि ग्यारह भेद हैं / इस प्रकार उपधान प्रतिमा के (12+11-23) तेईस भेद होते हैं। विवेकप्रतिमा के क्रोधादि भीतरी विकारों और उपधि, भक्त-पानादि बाहरी वस्तुओं के त्याग की अपेक्षा अनेक भेद संभव होने पर भी त्याग सामान्य की अपेक्षा विवेकप्रतिमा एक ही कही गई है। प्रतिसलीनताप्रतिमा भी एक ही कही गई है, क्योंकि इन्द्रियसलीनता आदि तीनों प्रकार को संलीनतानों का एक ही में समावेश हो जाता है / पाँचवी एकाकीविहारप्रतिमा है, किन्तु उसका भिक्षुप्रतिमाओं में अन्तर्भाव हो जाने से उसे पृथक् नहीं गिना है। इस प्रकार श्रुतसमाधिप्रतिमा बासठ, चारित्रसमाधिप्रतिमा पाँच, उपधान-प्रतिमा तेईस, विवेकप्रतिमा एक और प्रतिसंलीनताप्रतिमा एक, ये सब मिलाकर प्रतिमा के (62+ 5-! 23-: 1+1= 92) बानवै भेद हो जाते हैं। ___४२३-थेरे णं इंदभूती वाणउइ वासाइं सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे [जाव सव्वदुक्खप्पहीणे] / 'स्थविर इन्द्रभूति बानवे वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, [कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित] हुए / ४२४--मन्दरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरमंते एस णं वाणउई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउण्हं पि प्रावासपव्वयाणं। मन्दर पर्वत के बहुमध्य देश भाग से गोस्तूप प्रावासपर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग वानवै हजार योजन के अन्तरवाला है। इसी प्रकार चारों ही आवासपर्वतों का अन्तर जानना चाहिये। विवेचन---मेरु पर्वत के मध्य भाग से चारों ही दिशानों में जम्बूद्वीप की सीमा पचास हजार योजन है और वहाँ से चारों ही दिशाओं में लवण समुद्र के भीतर वियालीस हजार योजन की दूरी पर गोस्तूप आदि चारों ग्रावासपर्वत अवस्थित हैं, अतः मेरुमध्य से प्रत्येक आवासपर्वत का अन्तर बानवै हजार योजन सिद्ध हो जाता है। ॥द्विनवतिस्थानक समवाय समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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