________________ 150] / समवायाङ्गसूत्र सभी वृत्त वैताढ्य पर्वतों के ऊपरी शिखर से सौगन्धिककाण्ड का नीचे का चरमान्त भाग नव्वै सौ (9000) योजन अन्तरवाला है। विवेचन–रत्नप्रभा पृथिवी के समतल से सौगन्धिककाण्ड आठ हजार योजन है और सभी वृत्त-वैताढय पर्वत एक हजार योजन ऊंचे हैं। अतः दोनों का अन्तर नव्वै सौ (80000+1000 = 9000) योजन सिद्ध है। ॥नवतिस्थानक समवाय समाप्त / / एकनवतिस्थानक-समवाय ४१८-एकाणउई परवेयावच्चकम्मपडिमाओ पण्णत्तानो। पर-वैयावृत्यकर्म प्रतिमाएं इक्यानवै कही गई हैं / विवेचन-दूसरे रोगी साधु और प्राचार्य आदि का भक्त-पान, सेवा-शुश्रूषा एवं विनयादि करने के अभिग्रह विशेष को यहाँ प्रतिमा पद से कहा गया है। वैयावृत्य के उन इक्कानवै प्रकारों का विवरण इस प्रकार है 1 दर्शन, ज्ञान चारित्रादि से गुणाधिक पुरुषों का सत्कार करना, 2 उनके आने पर खड़ा होना, 3 वस्त्रादि देकर सन्मान करना, 4 उनके बैठते हुए आसन लाकर बैठने के लिए प्रार्थना करना 5 पासनानुप्रदान करना-उन के ग्रासन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना, 6 कृतिकर्म करना, 7 अंजली करना, 8 गुरुजनों के आने पर आगे जाकर उनका स्वागत करना, 9 गुरुजनों के गमन करने पर उनके पीछे चलना, 10 उन के बैठने पर बैठना। यह दश प्रकार का शुश्रुषा-विनय है। तथा 1 तीर्थंकर, 2 केवलिप्रज्ञप्त धर्म, 3 आचार्य, 4 वाचक (उपाध्याय) 5 स्थविर, 6 कुल, 7 गण, 8 संघ 9 साम्भोगिक, 10 क्रिया (प्राचार) विशिष्ट, 11 विशिष्ट मतिज्ञानी. 12 श्रुतज्ञानी, 13 अवधिज्ञानी, 14 मन:पर्यवज्ञानी और 15 केवलज्ञानी इन पन्द्रह विशिष्ट पुरुषों की 1 अाशातना नहीं करना, 2 भक्ति करना, 3 बहुमान करना, और 4 वर्णवाद (गुण-गान) करना, ये चार कर्तव्य उक्त पन्द्रह पदवालों के करने पर (154 4 = 60) साठ भेद हो जाते हैं। ___ सात प्रकार का औपचारिक विनय कहा गया है ---1 अभ्यासन-वैयावृत्य के योग्य व्यक्ति के पास बैठना, 2 छन्दोऽनुवर्तन- उसके अभिप्राय के अनुकूल कार्य करना, 3 कृतिप्रतिकृति-'प्रसन्न हुए आचार्य हमें सूत्रादि देंगे' इस भाव से उनको आहारादि देना, 4 कारितनिमित्तकरण-पढ़े हुए शास्त्रपदों का विशेष रूप से विनय करना और उनके अर्थ का अनुष्ठान करना, 5 दुःख से पीड़ित की गवेषणा करना, 6 देश-काल को जान कर तदनुकूल वैयावृत्य करना, 7 रोगी के स्वास्थ्य के अनुकूल अनुमति देना। पाँच प्रकार के प्राचारों के प्राचरण कराने वाले आचार्य पाँच प्रकार के होते हैं / उनके सिवाय उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्य करने से वैयावृत्त के 14 भेद होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org