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________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष] [243 श्रुताङ्ग है, इसमें समस्त सूत्रों का अर्थ संक्षेप से कहा गया है, अतः यह श्रुतसमास है, श्रुत का समुदाय रूप वर्णन करने से यह 'श्रुतस्कन्ध' है, समस्त जोवादि पदार्थों का समुदायरूप कथन करने से यह 'समवाय' कहलाता है, एक दो तीन ग्रादि की संख्या के रूप से संख्यान का वर्णन करने से यह ‘संख्या' नाम से भी कहा जाता है। इसमें प्राचारादि अंगों के समान श्रुतस्कन्ध आदि का विभाग न होने से यह अंग 'समस्त' अर्थात् परिपूर्ण अंग कहलाता है / तथा इसमें उद्देश आदि का विभाग न होने से इसे 'अध्ययन' भी कहते हैं / इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी को लक्ष्य करके कहते हैं कि इस अंग को भगवान् महावीर के समीप जैसा मैंने सुना, उसी प्रकार से मैंने तुम्हें कहा है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त तीर्थंकरादि के वंश से अभिप्राय उनकी परम्परा से है। ऋषि, यति आदि शब्द साधारणतः साधुओं के वाचक हैं, तो भी ऋद्धि-धारक साधुओं को ऋषि, उपशम या क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वालों को यति, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान वालों को मुनि और गृहत्यागी सामान्य साधुओं को अनगार कहते हैं। संस्कृत टीका में गणधरों के सिवाय जिनेन्द्र के शेष शिष्यों को ऋषि कहा है। निरुक्ति के अनुसार कर्म-क्लेशों के निवारण करने वाले को ऋषि, आत्मविद्या में मान्य ज्ञानियों को मुनि, पापों के नाश करने को उद्यत साधुओं को यति और देह में भी निःस्पृह को अनगार कहते हैं।' यह समवायाङ्ग यद्यपि द्वादशाङ्गों में चौथा है, तथापि इसमें संक्षेप में सभी अंगों का वर्णन किया गया है, अत: इसका महत्त्व विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। // समवायाङ्ग सूत्र समाप्त // रेषणात्क्लेशराशीनामषिमाहर्मनीषिणः / मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः की|ते मुनिः // 829 // यः पापपाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत् / योऽनीहो देह-गेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः / / 830 // .-- [यशस्तिलकचम्पू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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